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________________ उदीरणाकरण-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १३, १४ पंचेन्द्रिय तिर्यंच, मनुष्य हुण्डकसंस्थान की उदीरणा करते हैं। क्योंकि उन सबको हुण्डकसंस्थान का ही उदय होता है, अन्य कोई संस्थान . उदय में होता ही नहीं है तथा विकलेन्द्रियों एवं लब्धि-अपर्याप्त पंचेन्द्रिय तिर्यंच, मनुष्य के एक सेवार्तसंहनन की ही उदीरणा होती हैं । शेष संहननों का उनके उदय नहीं होने से वे उनकी उदीरणा नहीं करते हैं । तथा वेउन्वियआहारगउदए न नरावि होति संघयणी । पज्जत्तबायरे च्चिय आयवउद्दीरगो भोमो ॥१३॥ शब्दार्थ-वेउव्वियआहारगउदए-वैक्रिय और आहारक शरीर का उदय होने पर, न---नहीं, नरावि ----मनुष्य भी, होंति होते हैं, संघयणी - संहनन वाले, पज्जत्तबायरे -पर्याप्त बादर, च्चिय ही, आयवउद्दीरगो—आतपनाम के उदीरक, भोमो---पृथ्वीकाय । गाथार्थ-वैक्रिय और आहारक शरीर का उदय होने पर मनुष्य भी संहनन वाले नहीं होते हैं। पर्याप्त बादर पृथ्वीकाय जीव ही आतपनाम के उदीरक हैं। विशेषार्थ-उत्तर वैक्रिय और आहारक शरीर नामकर्म के उदय में वर्तमान मनुष्य तथा 'अपि' शब्द से उत्तर वैक्रियशरीरी तिर्यंच भी किसी संहनन की उदीरणा नहीं करते हैं। क्योंकि संहनननाम औदारिक शरीर में ही होता है, अन्य शरीरों में हड्डियां नहीं होने से संहनन नहीं होता है तथा सूर्य के विमान के नीचे रहने वाले खर पर्याप्त बादर पृथ्वीकाय जीव ही आतपनाम की उदीरणा के स्वामी हैं। क्योंकि इनके सिवाय अन्य किसी भी जीव के आतपनामकर्म का उदय होता ही नहीं है । तथा पुढवीआउवणस्सइ बायर पज्जत्त उत्तरतण य । विगलपणिंदियतिरिया उज्जोवुद्दीरगा भणिया ॥१४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001905
Book TitlePanchsangraha Part 08
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages230
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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