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________________ पंचसंग्रह समस्त देव, उत्तरशरीर वाले - आहारकशरीरी एवं वैक्रियशरीरी तथा भोगभूमि में उत्पन्न हुए समस्त युगलिक' मात्र समचतुरस्रसंस्थान की ही उदीरणा करते हैं । अन्य संस्थानों के उदय का अभाव होने से वे उन अन्य संस्थानों की उदीरणा भी नहीं करते हैं । तथा आइमसंघयणं चिय सेढीमारूढगा उदीरेंति । इयरे हुण्डं छेवट्ठगं तु विगला अपज्जत्ता ॥ १२॥ १६ शब्दार्थ - आइमसंघयणं - - प्रथम संहनन की, चिय-ही, सेढीभारूढगाश्रेणि पर आरूढ़ हुए, उदीरेंति - उदीरणा करते हैं, इयरे - इतर, हुण्डंहुण्डक की, छेवट्ठगं- सेवार्त की, तु— और विगला - विकलेन्द्रिय, ज्जत्ता — अपर्याप्त । अप 1 गाथार्थ - श्रणि पर आरूढ़ हुए प्रथम संहनन की ही उदीरणा करते हैं | इतर हुण्डक की तथा विकलेन्द्रिय एवं अपर्याप्त सेवार्त संहनन की उदीरणा करते हैं । विशेषार्थ - श्रेणि पर आरूढ़ अर्थात् उपशमश्रेणि पर तो आदि के तीन संहननों द्वारा आरूढ़ हुआ जा सकता है तथा उदय का अभाव होने से अन्य किसी भी संहनन वाले जीव क्षपकश्रेणि पर आरूढ़ नहीं हो सकते हैं । अतएव क्षपकश्रेणि पर आरूढ़ हुए जीव ही प्रथम संहनन– वज्रऋषभनाराचसंहनन की उदीरणा करते हैं । तथा 'इयरे' -- ऊपर जिन जीवों को जिस संस्थान का उदीरक कहा है, उनसे अन्य ऐसे एकेन्द्रिय विकलेन्द्रिय, नारक एवं लब्धि अपर्याप्त 1 Jain Education International - उदय के साथ उनका उदय होता है और उदय के साथ उदीरणा भी होती है ऐसा नियम होने से संहनन और संस्थान का उदीरक भी तनुस्थ - शरीर में वर्तमान जीव होना युक्तिसंगत प्रतीत होता है । १ संहननों में भी प्रथम संहनन की उदीरणा युगलिक करते हैं । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001905
Book TitlePanchsangraha Part 08
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages230
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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