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________________ ११० पंचसंग्रह : इस आयोजिकाकरण की शुरुआत जिस समय होती है, उससे पहले तीर्थंकर नाम के जघन्य अनुभाग की उदीरणा करता है। आयोजिकाकरण के प्रारंभ से ही उसके प्रबुर अनुभाग की उदीरणा करता है, इसलिये जिस समय आयोजिकाकरण की शुरुआत होती है उसके 'पहले समय में तीर्थंकरनामकर्म की जघन्य अनुभाग- उदीरणा होती है तथा -- सेसाणं वेयंतो मज्झिमपरिणामपरिणओ कुणइ । पच्चयसुभासुभाविय चितिय णेओ विवागी य ॥ ८०॥ - शब्दार्थ – साणं -शेत्र प्रकृतियों की, वेयंतो—वेदन करने वाला, मज्झिमपरिणामपरिणओ- - मध्यम परिणाम से परिणत, कुणइ - करता है, पच्चय सुभासुभाविय - प्रत्यय, शुभाशुभत्व, चितिय — विचार कर, जानना चाहिये, विवागी - वेदन करने वाला - स्वामी, य - और । णेओ - - गाथार्थ - शेष प्रकृतियों के जघन्य अनुभाग की उदीरणा का स्वामी -उस-उस प्रकृति का वेदन करने वाला, मध्यमपरिणाम से परिणत करता है । इस प्रकार प्रत्यय, शुभाशुभत्व आदि का विचार कर जघन्य - उत्कृष्ट अनुभाग की उदीरणा का स्वामी जानना चाहिये । विशेषार्थ - पूर्वोक्त से शेष रही साता - असातावेदनीय, चार गति, पांच जाति, चार आनुपूर्वी, उच्छवास, विहायोगतिद्विक, त्रस स्थावर, बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, सुभग, दुर्भग, सुस्वर, दुःस्वर, आदेय, अनादेय, यश. कोर्ति, अयशःकीर्ति, नीचगोत्र, उच्चगोत्र रूप चौंतीस प्रकृतियों के जघन्य अनुभाग की उदीरणा उस उस प्रकृति के उदय में वर्तमान मध्यमपरिणाम परिणत समस्त जीवों के जानना चाहिये । इसका कारण यह है कि ये सभी परावर्तमान प्रकृतियां हैं और उनके जघन्य अनुभाग की उदीरणा परावर्तमानभाव में होती है । यानि कि पुण्यप्रकृति का बंध करके पापप्रकृति को बांधने पर पुण्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001905
Book TitlePanchsangraha Part 08
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages230
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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