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________________ उदीरणाकरण- प्ररूपणा अधिकार : गाथा ७६ १०६ का स्वामी उदय के प्रथम समय में वर्तमान सूक्ष्म एकेन्द्रिय है वैसे ही उदय के प्रथम समय में वर्तमान सूक्ष्म एकेन्द्रिय जानना चाहिये तथाकक्ख गुरुणमंथे विणियट्टे णामअसुहधुवियाण' । जोगंतंमि नवहं तित्थस्साउज्जिया इंमि ॥७६॥ शब्दार्थ - कक्वड गुरुणमंथे— कर्कश और गुरु स्पर्श की मंथान के, विणिय - संहार के समय में, णामअसुहधुवियाणं - नामकर्म की अशुभ ध्र ुवोदया प्रकृतियों की, जोगतंमि - सयोगिकेवली के अंत समय में, नवण्हनौ की, तित्यस्सा उज्जियाईमि - तीर्थंकर नाम की आयोजिकाकरण के पहले समय में I गाथार्थ - कर्कश और गुरु स्पर्श की मंथान के संहार समय में, नामकर्म की अशुभ नौ ध्रुवोदया प्रकृतियों की सयोगिकेवली के अंत समय में और तीर्थंकरनाम की आयोजिकाकरण के पहले समय में जघन्य अनुभाग उदीरणा होती है । विशेषार्थ - समुद्घात से निवृत्त होते समय मंथान के संहरणकाल में कर्कश और गुरु स्पर्श की जघन्य अनुभाग- उदीरणा होती है तथा कृष्ण, नील वर्ण, दुरभिगंध, तिक्त कटुरस, शीत- रूक्षस्पर्श, अस्थिर और अशुभनाम रूप नामकर्म की नौ अशुभ ध्रुवोदया प्रकृतियों के जघन्य अनुभाग की उदीरणा सयोगिकेवलीगुणस्थान के चरम समय में वर्तमान जीव करता है। ये सभी पापप्रकृतियां हैं, जिनके मंद रस की उदीरणा विशुद्धिसंपन्न जीव करता है और तेरहवें गुणस्थान के चरम समय में सर्वोत्कृष्ट विशुद्धि होने से इनके जघन्य अनुभाग की उदीरणा का वह अधिकारी है । तीर्थंकर नाम के मंद अनुभाग की उदीरणा आयोजिकाकरण के पहले समय में वर्तमान जीव करता है। आयोजिकाकरण प्रत्येक केवल भगवान के होता है और वह केवलिसमुद्घात के पूर्व होता है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001905
Book TitlePanchsangraha Part 08
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages230
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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