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उदीरणाकरण-परूपणा अधिकार : गाथा ७५
- १०५ पांग के और जिसने वैक्रिय की उद्वलना की है ऐसा असंज्ञी में से आया हुआ अति क्र र नारक वैक्रिय-अंगोपांग के जघन्य अनुभाग की उदीरणा करता है। विशेषार्थ-अल्प आयु वाला द्वीन्द्रिय अपने भव के प्रथम समय में औदारिक-अंगोपांग के जघन्य अनुभाग की उदीरणा करता है तथा पूर्व में उद्वलित निःसत्ताक किये गये वैक्रिय-अंगोपांग को अल्प काल बांधकर अपनी आयु के अंत में अपनी भूमिका के अनुसार दीर्घ आयुवाला नारक हो, यानि कि एकेन्द्रिय भव में वैक्रिय की उद्वलना कर डाली और वहाँ से च्यवकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय हो, वहाँ अल्पकाल वैक्रिय का बंध कर जितनी अधिक आयु बंध सके, उतनी बांधकर नारक हो । असंज्ञो नारक का पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण आयु बांधता है, अतएव उतनी आयु से नारक हो तो वह अति संक्लिष्ट परिणामी नारक अपने भव के प्रथम समय में वैक्रिय-अंगोपांग के जघन्य अनुभाग की उदीरणा करता है । तथामिच्छोऽन्तरे किलिट्ठो वीसाइ धुवोदयाण सुभियाण । आहारजई आहारगस्स अविसुद्धपरिणामो ॥७५।।
शब्दार्थ - मिच्छोऽन्तरे-विग्रहगति में वर्तमान मिथ्यादृष्टि, किलिट्ठोसंक्लिष्ट, वीसाइ - बीस, धुवोदयाण-ध्रु वोदया, सुभियाण-शुम, आहारजई-आहारक यति. आहारगस्स-आहारकसप्तक के, अविसुद्धपरिणामो-अविशुद्ध परिणामी ।
गाथार्थ -विग्रहगति में वर्तमान संक्लिष्ट मिथ्या दृष्टि ध्रु वोदया बीस शुभ प्रकृतियों के तथा विशुद्ध परिणामी आहारक यति आहारकसप्तक के जघन्य अनुभाग की उदीरणा करता है।
विशेषार्थ-विग्रहगति में वर्तमान अनाहारी अति संक्लिष्ट परिणामी मिथ्याहृष्टि तैजससप्तक, एवं मृदु, लघु स्पर्श वजित
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