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________________ पंचसंग्रह १०० की उदीरणा अनिवृत्तिबादरसंपराय नामक नौवें गुणस्थान में उस-उस प्रकृति की अंतिम उदीरणा के समय तथा हास्यषट्क की जघन्य अनुभाग- उदीरणा अपूर्वकरण नामक आठवें गुणस्थान के चरम समय में होती है और निद्रा एवं प्रचला की उपशांतमोहगुणस्थान में तीव्र विशुद्धि होने से जघन्य अनुभाग- उदीरणा होती है । तथा निद्दानिद्दाईणं पमत्तविरए विसुज्झमाण मि । वेयगसम्मत्तस्स उ सगखवणोदीरणा चरिमे ॥ ७१ ॥ , शब्दार्थ - निद्दानिद्दाईणं - निद्रा निद्रात्रिक के पमत्तविरए - प्रमत्तविरत के, विसुज्झमाणंमि - उत्कृष्ट विशुद्धि वाले, वेयगसम्मत्तस्स — वेदकसम्यक्त्व के, खगखवणोदोरणा चरिमे - उस प्रकृति के क्षय काल में अंतिम उदीरणा । १ यहां और कर्म प्रकृति उदीरणाकरण गाथा ७० की मलयगिरि टीका में चारों संज्वलन और तीन वेद के जघन्य अनुभाग की उदीरणा नौवें गुणस्थान में बताई है । किन्तु गाथा में अपनी-अपनी उदीरणा के अंत में क्षपकणि में कही हैं । अत: संज्वलनलोभ की जघन्य अनुभाग- उदीरणा क्षपक के सूक्ष्मसंपराय की समयाधिक आवलिका शेष हो तब घटित होती है और कर्मप्रकृति उदीरणाकरण गाथा ७० की उपाध्याय यशोविजयजी कृत टीका में भी इसी प्रकार बतलाया है । जो अधिक समीचीन ज्ञात होता है । जो निद्राद्विक का उदय क्षपकश्र णि और क्षीणमोह गुणस्थान में नहीं मानते, उनके मत से उपशांतमोहगुणस्थान में जघन्यानुभाग की उदीरणा समझना चाहिये और जो क्षपकश्रेणि में निद्रा का उदय मानते हैं उनके मत से बारहवें गुणस्थान की दो समयाधिक आवलिका शेष रहे तब जघन्य अनुभाग- उदीरणा होती है, यह जानना चाहिये । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001905
Book TitlePanchsangraha Part 08
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages230
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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