SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 134
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उदीरणाकरण-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ७० ६६ तथा क्षपकश्रेणि पर आरूढ़ हुए वे महात्मा रसघात द्वारा उस कर्म के अत्यधिक रस का नाश करते हैं। जिससे अंत में बारहवें गुणस्थान की समयाधिक आवलिका शेष रहे तब उक्त प्रकृतियों के जघन्य अनुभाग की उदीरणा होती है। चरम आवलिका उदयावलिका है जिससे उसमें किसी करण की प्रवृत्ति नहीं होती है, इसीलिये समयाधिक आवलिका शेष रहे तब जघन्य अनुभागोदीरणा होती है, यह कहा है। तथा खवगम्मि विग्घकेवलसंजलणाणं सनोकसायाणं । सगसगउदीरणंते निहापयलाणमुवसंते ।।७०॥ शब्दार्थ-खवगम्मि-क्षपक के, विग्धकेवलसंजलणाणं-अंतरायपंचक, केवलावरणद्विक, संज्वलन कषाय की, सनोकसायाण-नव नोकषायों सहित, सगसगउदीरणंते-अपनी-अपनी उदीरणा के अंत में, निद्दापयलाणमुवसतेनिद्रा और प्रचला की उपशांत मोहगुणस्थान में । गाथार्थ-अंतरायपंचक, केवलावरणद्विक, संज्वलनकषाय, नवनोकषाय को जघन्य अनुभागउदीरणा क्षपक के अपनी-अपनी उदीरणा के अंत में तथा निद्रा और प्रचला की उपशांतमोहगुणस्थान में होती है। विशेषार्थ-अन्तरायपंचक, केवलज्ञानावरण, केवलदर्शनावरण, संज्वलनकषायचतुष्क और नव नोकषाय कुल बीस प्रकृतियों के जघन्य अनुभाग की उदीरणा क्षपकोणि में वर्तमान जीव के उन-उन प्रकृतियों को उदीरणा के अंत में होती है । अर्थात् उन-उन प्रकृतियों की अंतिम उदीरणा जिस समय होती है, उस समय में होती है। उनमें से अंतरायपचक केवलज्ञानावरण और केवलदर्शनावरण की जघन्य अनुभाग उदीरणा बारहवें गुणस्थान की समयाधिक आवलिका शेष स्थिति हो तब होती है । संज्वलनकषायचतुष्क और तीन वेद के जघन्य अनुभाग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001905
Book TitlePanchsangraha Part 08
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages230
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy