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________________ पंचसंग्रह ८ इसका कारण यह मालूम होता है कि शुरुआत में वे दानादि गुण अत्यन्त आवृत होते हैं और कर्मों का उदय तीव्र प्रमाण में होता है जिससे उदीरणा भी उत्कृष्ट होती है । इन प्रकृतियों का प्रत्येक जीव को क्षयोपशम होता है और वह भी भव के प्रथम समय से जैसे-जैसे आगे बढ़ता जाता है, वैसे-वैसे अधिक अधिक होता है और जैसे- जैसे योग बढ़ता जाता है, वैसे-वैसे क्षयोपशम भी बढ़ता है तथा उससे उदीरणा का प्राबल्य घटता जाता है । तथा मं८ समस्त पर्याप्तियों से पर्याप्त त्रीन्द्रिय जीव के पर्याप्ति के चरम समय में चक्षुदर्शनावरणकर्म के उत्कृष्ट अनुभाग की उदीरणा होती है। इसीलिए त्रीन्द्रिय जीव चक्षुदर्शनावरण के उत्कृष्ट अनुभाग की उदीरणा का स्वामी है । इसका कारण यह है प्रत्येक अपर्याप्त अपर्याप्तावस्था में उत्तरोत्तर समय में असंख्यातगुण योग वृद्धि से बढ़ता है । अपर्याप्तावस्था के अन्तिम समय में योग अधिक होने से अधिक अनुभाग की उदीरणा हो सकती है। एकेन्द्रियादि को इतना योग नहीं होने से उनको अधिक अनुभाग की उदीरणा नहीं होती है, इसीलिये उनका ग्रहण नहीं किया है और चतुरिन्द्रियादि के तो चक्षुरिन्द्रियावरण का क्षयोपशम ही होता है । तथा निद्दाणं पंचण्हवि मज्झिमपरिणामसंकि लिट्ठस्स । पणनोकसायसाए नरए जेट्ठट्ठति समत्तो ॥ ५६ ॥ शब्दार्थ - निद्दागं पंचण्हवि - पांचों निद्राओं की, मज्झिमपरिणामसं कि लिट्ठस्स. - मध्यम परिणामी संक्लिष्ट जीव के, पणनोकसायसाए - पांच नोकषायों और असातावेदनीय की, नरए - नारक के, जेट्ठट्ठति — उत्कृष्ट स्थिति वाले, समत्तो - पर्याप्त को । L गाथार्थ - मध्यमपरिणामी तत्प्रायोग्य संक्लिष्ट जीव के पाँचों निद्राओं की तथा उत्कृष्ट स्थिति वाले पर्याप्त नारक के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001905
Book TitlePanchsangraha Part 08
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages230
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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