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________________ पंचसंग्रह : ८ च शब्द से संकलित वैक्रियसप्तक तथा ध्रुवोदया प्रकृतियां अन्यथा बंधी हुई ये सभी प्रकृतियां गुण के अवलम्बन से अन्यथा परिणमित होकर उदीरित होती हैं। इसलिए उनकी उदीरणा मुख्यरूप से गुणपरिणामकृत समझना चाहिये । अथवा सभी प्रकृतियां यथायोग्य रीति से किसी न किसी भव में उदीरित की जाती हैं। जैसे तिर्यंचगतिप्रायोग्य तिर्यंचगति में, मनुष्यगतिप्रायोग्य मनुष्यगति में नरकगतिप्रायोग्य नरकगति में और देवगतिप्रायोग्य देवभव में । इसलिए सभी प्रकृतियों की उदीरणा भवप्रत्ययिक जानना चाहिए । अथवा उस-उस प्रकार के परिणाम के वश से अधिक रस वाली प्रकृतियों को अल्प रस वाली करके और अल्प रस वाली हों तो उन्हें अधिक रस वाली करके सभी जीव उदीरित करते हैं । इसीलिये सभी प्रकृतियों परिणाम प्रत्यरिक जानना चाहिए । ८० इस प्रकार से प्रत्ययप्ररूपणा का आशय जानना चाहिए । अब साद्यादि प्ररूपणा करने का अवसर प्राप्त है । वह मूलप्रकृतिविषयक और उत्तरप्रकृतिविषयक के भेद से दो प्रकार की है । उसमें पहले मूलप्रकृतिविषयक साद्यादि प्ररूपणा करते हैं । मूलप्रकृति सम्बन्धी साद्यादि प्ररूपणा deforणुक्कोसा अजहण्णा मोहणीय चउभेया । सेसघाईणं तिविहा नामगोयाणणुक्कोसा || ५४ || सेसविगप्पा दुविहा सव्वे आउस्स होउमुवसन्तो । सव्वट्ठगओ साए उक्कोसुद्दीरणं कुणइ ॥ ५५॥ शब्दार्थ - वेयणिएणक्कोसा - वेदनीय कर्म की अनुत्कृष्ट उदीरणा, १ यहाँ अन्य प्रकृति में संक्रमरूप अन्यथा परिणाम नहीं समझना चाहिये । किन्तु रस की उदीरणा का अधिकार होने से जिस प्रकृति में जैसा रस बांधा हो, उसमें फेरफार करने रूप अन्यथा परिणमन जानना चाहिए । www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.001905
Book TitlePanchsangraha Part 08
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages230
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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