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________________ उदीरणाकरण-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ५३ ७६ तक होती है, देवत्रिक की उदीरणा में देवभव कारण है, तिर्यंचत्रिक, एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रियजातित्रिक, स्थावर, सूक्ष्म, साधारण और आतप नामकर्म की उदीरणा तिर्यंचभव प्रत्यधिक है और मनुष्यत्रिक की उदीरणा में मनुष्यभव हेतु है। उक्त बीस प्रकृतियों की उदीरणा उस-उस भव में ही होने से भवप्रत्ययिक कहलाती है। शेष प्रकृतियों की उदीरणा में कोई निश्चित भव प्रतिबंधक नहीं होने से परिणामप्रत्ययिक कहलाती हैं। जिसका आशय यह है कि उक्त बीस प्रकृतियों के सिवाय शेष प्रकृतियों की उदीरणा परिणामप्रत्ययिक और ध्र व है। क्योंकि सर्वभावों में और सर्वभवों में विद्यमान उदीरणा ध्र वोदया प्रकृतियों की होती है। इसलिए परिणाम-निमित्त से जिनकी उदीरणा होने वाली है, ऐसी शेष प्रकृतियां ध्र वोदया ही समझना चाहिए और उनकी उदीरणा निर्गुणपरिणामकृत समझना चाहिए। तथा - तित्थयरं घाईणि य आसज्ज गुण पहाणभावेण । भवपच्चइया सव्वा तहेव परिणामपच्चइया ॥५३।। शब्दार्थ-तित्थयरं-तीर्थकर, घाईणि-घाति प्रकृतियां, य-और, आसज्ज-आधार से, गुणं - गुण के, पहाणभावेग-प्रधानतया, मुख्यरूप से, भवपच्चइया-भवप्रत्ययिक, सव्वा-सभी, तहेव -उसी तरह, परिणामपच्चइया--परिणाम प्रत्ययिक । गाथार्थ - तीर्थंकर और घाति प्रकृतियां गुण के आधार से प्रधानतया गुणपरिणामप्रत्ययिक जानना चाहिए अथवा उसी तरह सभी प्रकृतियां भवप्रत्ययिक एवं परिणामप्रत्ययिक भी कहलाती हैं। विशेषार्थ-तीर्थकरनाम, घाति प्रकृति, ज्ञानावरणपंचक, दर्शनावरणनवक, नोकषाय बिना शेष मोहनीय और अन्तरायपंचक तथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001905
Book TitlePanchsangraha Part 08
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages230
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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