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________________ उदीरणाकरण प्ररूपणा अधिकार : गाया ४६ और जो विषय होता है, उतना और उस विषय को उसका आवरक कर्म आवृत्त करता है। अब इसी कथन को विशेष रूप में स्पष्ट करते हैं गुरु-लघुपरिणामी अर्थात् आठ स्पर्श वाले अनन्त प्रादेशिक स्कन्धों का चक्षु द्वारा सामान्य ज्ञान नहीं होने देना चक्षुदर्शनावरण का विपाक है। क्योंकि चक्षुदर्शन द्वारा गुरु-लघु परिणामी अनन्त प्रदेशों से बने स्कन्ध ही जाने जा सकते हैं तथा शेष अंतराय-दान, लाभ, भोग और उपभोग अन्त राय कर्मों का ग्रहण और धारण किये जा सकें ऐसे पुद्गल द्रव्यों में ही विपाक है। क्योंकि जीव पुद्गलद्रव्य का अनन्तवां भाग ही दान में दे सकता है, लाभ प्राप्त कर सकता है या भोग-उपभोग करता किन्तु समस्त पुद्गल द्रव्यों का नहीं। दानादि गुणों का उतना ही विषय है, जिससे उसको आवृत करने वाले कर्मों का विपाक भी उतने में ही होता है। अवधिज्ञानावरण और अवधिदर्शनावरण कर्मों का विपाक रूपी द्रव्यों में ही है-यानि वे कर्म अपनी शक्ति का अनुभव जीव को रूपी पदार्थों का सामान्य विशेष ज्ञान नहीं होने देने में कराते हैं, अरूपी द्रव्यों में उनका विपाक नहीं है। जीवों को अरूपी द्रव्य का ज्ञान नहीं होने देने में अवधिज्ञान-दर्शनावरण कर्मों का उदय हेतु नहीं है, क्योंकि वह उनका विषय नहीं है। तात्पर्य यह कि जितने विषय में चक्षुदर्शनादि का व्यापार है, उतने ही विषय में चक्षुदर्शनावरण आदि कर्मों का भी व्यापार है । तथा सेसाणं जह बंधे होइ विवागो उ पच्चओ दुविहो। भवपरिणामको वा निग्गुणसगुणाण परिणइओ॥४६॥ जिस गुण से जो जाना जा सके, जिस गुण का जो कार्य हो, वह उसका विषय कहलाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001905
Book TitlePanchsangraha Part 08
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages230
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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