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________________ ७२ पंचसंग्रह : ८ जीव में विद्यमान अनन्त ज्ञानादि गुण सर्वथा घातित नहीं हो जाते हैं। उपयुक्त प्रकृतियों में जो-जो सम्यक्त्व, चारित्र आदि गुणों को आच्छादित करती हैं, उन सबके अमुक-अमुक अंश उद्घाटित रहते ही हैं। क्योंकि समस्त अंशों को आच्छादित करने की उन कर्मों में शक्ति हो नहीं है । जीव स्वभाव से वे गुण सम्पूर्णतया आच्छादित हो भी नहीं सकते हैं। यदि पूर्ण रूप से दब जायें तो जीव अजीव हो जायेगा । जैसे सघन बादलों के रहने पर भी उनसे चन्द्र, सूर्य की प्रभा परिपूर्ण रूप से आच्छादित नहीं हो जाती है, परन्तु दिन-रात्रि का अन्तर ज्ञात हो, इतनी तो उद्घाटित रहती ही है, इसी प्रकार यहाँ भी समझना चाहिए। तथा गुरुलहुगाणंतपएसिएसु चक्खुस्स सेसविग्घाणं । जोगेसु गहणधरणे ओहीणं रुविदवेसु ॥४८॥ शब्दार्थ-गुरुनहगाणंतपएसिए --गुरुलवु द्रव्यों के अनन्त प्रादेशिक स्कन्धों में, चक्खुस्स -चक्षुदर्शनावरण का, सेसविग्घाणं---शेष अन्तराय कर्मों का, जोगेसुगहणधरणे ---ग्रहण और धारण करने योग्य द्रव्यों में, ओहीणंअवधिज्ञानदर्शन आवरणों का, रुविदब्वेसु-रूपी द्रव्यों में । गाथार्थ-गुरु-लघु द्रव्यों के अनन्त प्रादेशिक स्कन्धों में, चक्षुदर्शनावरण का, ग्रहण-धारण करने योग्य पुद्गलों में शेष अन्तराय कर्मों का और रूपी द्रव्यों में अवधिज्ञान दर्शनावरणों का विपाक होता है। विशेषार्थ-जिस गुण की जितने प्रमाण में जानने आदि की शक्ति होती है, उसका आवारक कर्म उतने प्रमाण में उन ज्ञानादि गुणों को आवृत्त करता है। जैसे कि अवधिज्ञान की मात्र रूपी द्रव्य को जानने की शक्ति है तो अवधिज्ञानावरण कर्म रूपी द्रव्य को जानने की शक्ति को ही आच्छादित करता है। तात्पर्य यह हुआ कि जिस गुण का जितना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001905
Book TitlePanchsangraha Part 08
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages230
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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