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________________ संक्रम आदि करण त्रय-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १८ ५३ पतद्ग्रहस्थान होते हैं। चारित्रमोहनीय के क्षपक के पांच, चार, तीन, दो और एक प्रकृति के बंध रूप पांच पतद्ग्रहस्थान होते हैं । उपशमश्रेणि में उपशम सम्यग्दृष्टि के क्षपक संबन्धी जो पांच आदि प्रकृति रूप पतद्ग्रह हैं, वे ही सम्यक्त्वमोहनीय और मिश्रमोहनीय युक्त ग्रहण करना चाहिये । अर्थात् उनके सात, छह, पांच, चार और तीन प्रकृतिक इस तरह पांच पतद्ग्रहस्थान होते हैं तथा क्षायिक सम्यक्त्व उत्पन्न करते हुए मिथ्यात्वमोहनीय का क्षय होने के बाद जब तक मिश्रमोहनीय का क्षय न हो, तब तक पूर्व में क्षायिक सम्यक्त्वी अविरत, देशविरत और सर्वविरत के सत्रह, तेरह और नौ प्रकृति रूप जो पतद्ग्रह कहे हैं, उनमें सम्यक्त्वमोहनीय को मिलाने पर अठारह, चौदह और दस प्रकृतिक इस प्रकार तीन पतद्ग्रहस्थान होते हैं और जब तक मिथ्यात्वमोहनीय का क्षय न हो, तब तक वही सत्रह आदि पतद्ग्रहस्थान सम्यक्त्वमोहनीय और मिश्रमोहनीय के साथ उन्नीस, पन्द्रह और ग्यारह प्रकृति रूप इस प्रकार तीन होते हैं । ___बाईस और इक्कीस प्रकृति के समूह रूप दो पतद्ग्रहस्थान मिथ्यात्व और सासादन गुणस्थान में होते हैं। उनमें से मिथ्यादृष्टि के दोनों और सासादनसम्यग्दृष्टि के इक्कीस प्रकृति रूप एक पतद्ग्रहस्थान ही होता है। ___ इस प्रकार अठारह पतद्ग्रहस्थान होते हैं, हीनाधिक नहीं । एक ही संख्या यदि दो बार आये तो वहाँ संख्या एक ही लेना चाहिये और एक पतद्ग्रहस्थान दो प्रकार से होता है, यह समझना चाहिये। जैसे कि सम्यक्त्व और मिश्र मोहनीय इस तरह दो प्रकृतिरूप पतद्ग्रहस्थान ग्यारहवें गुणस्थान में भी होता है । और क्षपकणि में माया और लोभ इन दो प्रकृतिरूप नौवें गुणस्थान में भी होता है। १. यहाँ क्षपक कहने से चारित्रमोहनीय का क्षय करने वाले नौवें गुणस्थान वर्ती जीव को ग्रहण करना चाहिये, आठवें गुणस्थान वाले को नहीं । क्योंकि वहाँ चारित्रमोहनीय की एक भी प्रकृति का क्षय नहीं होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001904
Book TitlePanchsangraha Part 07
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages398
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size18 MB
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