________________
पंचसंग्रह : ७
मिथ्यात्व के क्षपक अविरतसम्यग्दृष्टि, देशविरत तथा सर्वविरत प्रमत्त-अप्रमत्त-गुणस्थान में बाईस प्रकृतिरूप संक्रमस्थान होता है, अन्यत्र नहीं होता है तथा मिथ्यात्वगुणस्थान में एवं गाथा में उक्त य च' शब्द से अविरत, देशविरत और सर्वविरत गुणस्थानों को ग्रहण करके उन में भी तेईस, सत्ताईस और छब्बीस प्रकृतिरूप इस प्रकार तीन संक्रमस्थान होते हैं। शेष गुणस्थानों में नहीं होते हैं।
अव पतद्ग्रहस्थान अठारह ही क्यों, हीनाधिक क्यों नहीं होते ? इसको युक्ति द्वारा स्पष्ट करते हैं। मोहनीयकर्म के अठारह पतद्ग्रहस्थान होने में युक्ति
खवगस्स सबंधच्चिय उवसमसेढीए सम्ममीसजुया। मिच्छखवगे ससम्मा अट्ठारस इय पडिग्गहया ॥१८॥ शब्दार्थ-खवगस्स-क्षपक के सबंधच्चिय-अपने बंधस्थान ही, उवमसेढीए-उपशमश्रेणि में, सम्ममीसजुया-सम्यक्त्व और मिश्रमोहनीय मुक्त, मिच्छेखवगे--मिथ्यात्व के क्षपक के, ससम्मा-सम्यक्त्व युक्त, अट्ठास-अठारह, इय-इस कारण , पडिग्गहया–पतद्ग्रह । ___ गाथार्थ-क्षपक के अपने बंधस्थान ही पतग्रह होते हैं, वे ही पतद्ग्रह उपशमश्रेणि में सम्यक्त्व और मिश्रमोहनीय युक्त होते हैं । मिथ्यात्व के क्षपक के सम्यक्त्व युक्त पतद्ग्रह होते हैं। इस कारण अठारह पतद्ग्रहस्थान होते हैं ।
विशेषार्थ-गाथा में अठारह पतद्ग्रहस्थान होने का कारण स्पष्ट कया है
जिसने अनन्तानुबंधिचतुष्क आदि सात प्रकृतियों का क्षय किया , उसे और चारित्रमोहनीय के क्षपक के अपने जो बंधस्थान हैं अर्थात् मोहनीयकर्म की जितनी प्रकृतियों का बंध करते हैं, वे ही पतद्ग्रह ती हैं। जैसे कि क्षायिक सम्यक्त्वी अविरत, देशविरत और सर्वपरत जीवों के अनुक्रम से सत्रह, तेरह और नौ प्रकृतिक इस प्रकार तीन
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org