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संक्रम आदि करणत्रय - प्ररूपणा अधिकार : गाथा ११,१२
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तदनन्तर संज्वलन मान की प्रथम स्थिति समय न्यून तीन आवलिका शेष रहे तब संज्वलन मान भी पतद्ग्रह नहीं होता है । इसलिये पांच में से उसे अलग करने पर शेष चार के पतद्ग्रहस्थान में दस प्रकृतियां समय न्यून दो आवलिका पर्यन्त संक्रमित होती हैं । उसके बाद अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण मान उपशमित हो तब शेष आठ प्रकृतियां चार के पतद्ग्रहस्थान में संक्रमित होती हैं । संज्वलन मान उपशमित हो तब शेष सात प्रकृतियां अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त चार के पतद्ग्रहस्थान में संक्रमित होती हैं ।
तदनन्तर संज्वलन माया की प्रथम स्थिति समय न्यून तीन आवलिका शेष रहे तब संज्वलन माया भी पतद्ग्रह नहीं होती है, इसलिये चार में से उसे दूर करने पर शेष तीन के पतद्ग्रहस्थान में पूर्वोक्त सात प्रकृतियां संक्रमित होती हैं । वे समय न्यून दो आवलिका काल जाने तक संक्रमित होती हैं । तत्पश्चात् अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण माया उपशमित हो तब शेष पांच प्रकृतियां तीन के पतद्ग्रहस्थान में संक्रांत होती हैं। वे तब तक ही संक्रमित होती हैं यावत् समय न्यून दो आवलिका काल जाये । उसके बाद संज्वलन माया उपशमित हो तब शेष चार प्रकृतियां अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त तीन के पतद्ग्रहस्थान में संक्रमित होती हैं ।
तदनन्तर अनिवृत्तिबादरसंपरायगुणस्थान के चरम समय में अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण लोभ उपशमित हो तब शेष मिथ्यात्वमोहनीय और मिश्रमोहनीय ये दो प्रकृतियां सम्यक्त्वमोहनीय और मित्रमोहनीय इन दो प्रकृतियों में संक्रमित होती हैं । यहाँ यह समझ लेना चाहिये कि नौवें गुणस्थान का समय न्यून दो आवलिका काल शेष रहे, उसी समय से संज्वलन लोभ पतद्ग्रह नहीं होता है, तभी से दो प्रकृतियों का दो प्रकृतियों में संक्रम होता है । दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय का परस्पर संक्रम नहीं होने से मिश्र और मिथ्यात्व मोहनीय का लोभ में संक्रम नहीं होता है, जिससे दो का दो में संक्रम होता है । उसमें मिथ्यात्व सम्यक्त्व और मिश्र
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