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________________ ३८ पंचसंग्रह : ७ तत्पश्चात् पुरुषवेद की प्रथम स्थिति समयन्यून दो आवलिका शेष रहे तब वह पतद्ग्रह रूप में नहीं रहता है। क्योंकि प्रथमस्थिति की समयन्यून दो और तीन आवलिका शेष रहे तब अनुक्रम से पुरुषवेद और संज्वलनचतुष्क में पतद्ग्रहरूपता नहीं रहती है, ऐसा नियम है। इसलिये पूर्वोक्त सात प्रकृतियों में से पुरुषवेद को पृथक करने पर शेष छह के पतद्ग्रहस्थान में बीस प्रकृति संक्रमित होती हैं । तदनन्तर जब छह नोकषाय उपशमित हों तब शेष चौदह प्रकृतियां उक्त छह प्रकृतिक पतद्ग्रहस्थान में संक्रमित होती हैं। छह में चौदह प्रकृतियां समयोन दो आवलिका पर्यन्त संक्रमित होती हैं । इसका कारण यह है कि जिस समय छह नोकषाय उपशमित होती हैं, उस समय पुरुषवेद का बंधविच्छेद होता है, तब समयन्यून दो आवलिकाकाल का बंधा हुआ दलिक ही अनुपशमित शेष रहता है। उसका उपशम और संक्रम समयन्यून दो आवलिकाकाल पर्यन्त होता है, इसीलिये कहा है कि छह में चौदह प्रकृतियां समयोन दो आवलिका तक संक्रमित होती हैं। पुरुषवेद का उपशम होने के बाद शेष तेरह प्रकृतियां छह के पतग्रहस्थान में अन्तमुहूर्त पर्यन्त संक्रांत होती हैं। तदनन्तर संज्वलन क्रोध की प्रथम स्थिति समय न्यून तीन आवलिका शेष रहे तब संज्वलन क्रोध भी पतद्ग्रह नहीं होता है, इसलिये पूर्वोक्त छह में से उसे कम करने पर शेष पांच के पतद्ग्रहस्थान में वही तेरह प्रकृतियां संक्रमित होती हैं। तत्पश्चात् अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण क्रोध उपशमित हो तब शेष ग्यारह प्रकृतियां पांच के पतद्ग्रहस्थान में समयोन दो आवलिका पर्यन्त संक्रमित होती हैं । इसका कारण पुरुषवेद के लिये जो पूर्व में कहा जा चुका है उसी प्रकार समझ लेना चाहिये । तत्पश्चात् संज्वलन क्रोध उपशमित हो तब शेष दस प्रकृतियां उसी पांच प्रकृतिक पतद्ग्रहस्थान में अन्तमुहूर्त पर्यन्त संक्रांत होती हैं। १. दुसुतिसु आवलियासु । Jain Education International For Private & Personal Use Only -संक्रमकरण गाथा ७ www.jainelibrary.org
SR No.001904
Book TitlePanchsangraha Part 07
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages398
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size18 MB
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