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संक्रम आदि करण त्रय-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ११,१२
उन्हीं अविरतसम्यग्दृष्टि आदि गुणस्थानवर्ती क्षायोपश मिक सम्यग्दृष्टि जीवों के सम्यक्त्वमोहनीय पतद्ग्रह होने से शेष तेईस प्रकृतियां पूर्वोक्त उन्नीस आदि तीन पतद्ग्रहस्थानों में संक्रान्त होती हैं। तत्पश्चात् क्षायिक सम्यक्त्व उत्पन्न करते मिथ्यात्व का क्षय होने के बाद मिश्रमोहनीय पतद्ग्रह रूप नहीं होती है और मिथ्यात्व संक्रम में नहीं होती, इसलिये शेष बाईस प्रकृतियां अविरत, देशविरत और संयत जीव के अनुक्रम से अठारह, चौदह और दस प्रकृतिक पतद्ग्रह में संक्रमित होती हैं। उसके बाद मिश्रमोहनीय का क्षय होने के अनन्तर सम्यक्त्वमोहनीय पतद्ग्रहत्व में नहीं होती है और संक्रम में तो है ही नहीं, जिससे इक्कीस प्रकृतियां अविरत आदि गुणस्थान वालों को अनुक्रम से सत्रह, तेरह और नौ प्रकृतिक पतद्ग्रहस्थान में संक्रमित होती हैं। उपशमणि में वर्तमान औपमिक सम्यग्दृष्टि को संक्रम-पतद्ग्रह विधि
अब उपशमश्रेणि में वर्तमान औपशमिक सम्यग्दृष्टि के संक्रमस्थानों की अपेक्षा पतद्ग्रहविधि का कथन करते हैं---
चौबीस की सता वाले औपशमिक सम्यग्दृष्टि के सम्यक्त्वमोहनीय ये मिथ्यात्व और मिश्र की पतद्ग्रह होने से, उसे अलग करने पर शेष तेईस प्रकृतियां पुरुषवेद, संज्वलनचतुष्क, सम्यक्त्वमोहनीय और मिश्रमोहनीय, इस प्रकार सात प्रकृतिक पतद्ग्रहस्थान में संक्रमित होती हैं। उपशमश्रेणि में वर्तमान उसी जीव के अन्तरकरण करने के अनन्तर संज्वलन लोभ का संक्रम नहीं होता है, जिससे उसके सिवाय शेष बाईस प्रकृतियां पूर्वोक्त सात प्रकृतिक पतद्ग्रहस्थान में संक्रान्त होती हैं। उसी के नपुसकवेद का उपशम होने के बाद इक्कीस प्रकृतियां सात के पतद्ग्रहस्थान में संक्रमित होती हैं। उसके बाद स्त्रीवेद का उपशम होने के अनन्तर बीस प्रकृतियां सातप्रकृतिक पतद्ग्रहस्थान में संक्रांत होती हैं।
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