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________________ ३ पंचसंग्रह : ७ सम्यग्मिथ्यादृष्टि के भी दर्शनमोहत्रिक प्रकृतियों के संक्रम का अभाव होने से अट्ठाईस की सत्ता वाले अथवा सम्यक्त्वमोह के बिना सत्ताईस की सत्ता वाले मिश्रदृष्टि के पच्चीस प्रकृतियां और अनन्तानुबंधि रहित चौबीस की सत्ता वाले मिश्रदृष्टि के इक्कीस प्रकृतियां बारह कषाय, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा और युगलद्विक में से किसी एक युगलरूप बंधती हुई सत्रह प्रकृतियों में संक्रमित होती हैं। अविरतसम्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्त और अप्रमत्तविरत इन चार गुणस्थानों में संक्रमस्थान समान होने से इनके एक साथ ही पतद्ग्रहस्थान कहते हैं। ____ अविरत आदि चार गुणस्थानों में औपशमिक सम्यग्दृष्टि के सम्यक्त्व प्राप्ति के प्रथम समय से लेकर आवलिका कालपर्यन्त सम्यक्त्व और मिश्रमोहनीय पतद्ग्रह रूप ही होती है। इसलिये शेष छब्बीस प्रकृतियां अविरतसम्यग्दृष्टि के बारह कषाय, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा और युगलद्विक में से एक युगल रूप बंधती हुई सत्रह तथा सम्यक्त्वमोहनीय और मिश्रमोहनीय कुल उन्नीस प्रकृतियों के समुदाय रूप पतद्ग्रह में, देशविरति के प्रत्याख्यानावरणचतुष्क, संज्वलनचतुष्क, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, अन्यतर युगल, सम्यक्त्वमोहनीय और मिश्रमोहनीय रूप पन्द्रह प्रकृतिक पतद्ग्रह में और प्रमत्त-अप्रमत्तसंयत के संज्वलनचतुष्क, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, अन्यतर युगल, सम्यक्त्वमोहनीय और मिश्रमोहनीय रूप ग्यारह प्रकृतिक पतद्ग्रह में संक्रमित होती हैं। उन्हींअविरत सम्यग्दृष्टि आदि के उपशम सम्यक्त्व की प्राप्ति से आवलिका पूर्ण होने के बाद मिश्रमोहनीय संक्रम और पतद्ग्रह दोनों में होती है । क्योंकि मिश्रमोहनीय की संक्रमावलिका व्यतीत हो गई है, जिससे वह करणसाध्य हो गई है। इसलिये सत्ताईस प्रकृतियां पूर्वोक्त उन्नीस, पन्द्रह और ग्यारह रूप तीन पतद्ग्रहस्थानों में संक्रमित होती हैं। अनन्तानुबंधि की उद्वलना होने के बाद चौबीस की सत्ता वाले Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001904
Book TitlePanchsangraha Part 07
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages398
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size18 MB
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