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________________ संक्रम आदि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ११,१२ मिश्रमोहनीय की उद्वलना करे तब छब्बीस की सत्ता वाले उसी मिथ्यादृष्टि के मिथ्यात्वमोहनीय में किसी भी प्रकृति का संक्रम नहीं होने से वह किसी की पतद्ग्रह नहीं, इसलिये पूर्वोक्त बाईस में से उसे कम करने पर शेष इक्कीस प्रकृति के समुदाय रूप पतद्ग्रह में पच्चीस प्रकृतियां संक्रमित होती हैं। अथवा छब्बीस प्रकृति की सत्ता वाले अनादि मिथ्यादृष्टि जीव के मिथ्यात्व किसी भी प्रकृति में संक्रमित नहीं होता है, एवं उसमें भी अन्य कोई प्रकृति संक्रमित नहीं होती है, इसलिये आधार-आधेयभाव रहित उस मिथ्यात्वमोहनीय को दूर करने पर शेष पच्चीस प्रकृतियां इक्कीस प्रकृतियों में संक्रमित होती हैं। चौवीस की सत्ता वाला कोई सम्यग्दृष्टि गिरकर मिथ्यात्व में जाये, वहाँ यद्यपि मिथ्यात्व रूप हेतु के द्वारा अनन्तानुबंधिकषाय को पुनः बांधता है, लेकिन वह बंधावलिका पर्यन्त सकल करण के अयोग्य होने से सत्ता में होने पर भी उसको संक्रमित नहीं करता है और मिथ्यात्वमोहनीय सम्यक्त्व एवं मिश्र मोहनीय की पतद्ग्रह है। इसलिये अनन्तानुबंधिचतुष्क और मिथ्यात्वमोहनीय को छोड़कर शेष तेईस प्रकृतियों को पूर्वोक्त बाईस प्रकृतियों में संक्रमित करता है । ___ इस प्रकार मिथ्यादृष्टि के बाईस प्रकृतिक पतद्ग्रह में सत्ताईस, छब्बीस और तेईस प्रकृति के समह रूप तीन संक्रमस्थान संक्रमित होते हैं और इक्कीस के पतद्ग्रह में पच्चीस प्रकृतियां संक्रान्त होती हैं। शेष संक्रमस्थान या पतद् ग्रहस्थान मिथ्यादृष्टि के नहीं होते हैं। __ सासादनसम्यग्दृष्टि के 'दूसरा और तीसरा गुणस्थान वाला दर्शनत्रिक को संक्रमित नहीं करता है। ऐसा सिद्धान्त होने से दर्शनमोहनीय की तीन प्रकृतियों के संक्रम का अभाव है। इसलिये यहाँ सदैव इक्कीस के पतद्ग्रह में पच्चीस प्रकृतियां ही संक्रमित होती हैं । १. दुइयतइज्जा न दंसणतिगंपि । -संक्रमकरण गाथा ३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org For Priva
SR No.001904
Book TitlePanchsangraha Part 07
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages398
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size18 MB
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