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संक्रम आदि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १५
२७३ शब्दार्थ-उक्कोसं-उत्कृष्ट, डायट्ठिई-डायस्थिति, किंचूणाकुछ न्यून, कंडग-कंडक, जहण्णं-जघन्य, तु-और, पल्लासखंसंपल्योपम का असंख्यातवां भाग, डायट्ठिई--- डायस्थिति, उ- और, जतोजिससे, परमबंधो-उत्कृष्ट बंध ।
गाथार्थ-कंडक का उत्कृष्ट प्रमाण कुछ न्यून उत्कृष्ट स्थिति रूप डायस्थिति है और जघन्य प्रमाण पल्योपम का असंख्यातवां भाग है। जिस स्थिति से उत्कृष्ट स्थितिबंध होता है उससे लेकर उत्कृष्ट स्थितिबंध पर्यन्त सभी डायस्थिति कहलाती है। विशेषार्थ-जिस स्थिति से लेकर उत्कृष्टस्थितिबंध होता है उस स्थिति से उत्कृष्ट स्थिति तक की समस्त स्थिति डायस्थिति कहलाती है और वह कुछ न्यून उत्कृष्ट कर्म स्थिति प्रमाण है। क्योंकि पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव अन्तःकोडाकोडी प्रमाण स्थिति बंध करके अनन्तर समय में उत्कृष्ट संक्लेश के कारण उत्कृष्ट स्थितिबंध करता है। अर्थात् अन्त:कोडाकोडी से लेकर उत्कृष्ट स्थितिबंध तक की समस्त स्थिति डायस्थिति कहलाती है और वह डायस्थिति अन्तःकोडाकोडी न्यून उत्कृष्ट प्रमाण होने से कुछ न्यून उत्कृष्ट कर्मस्थिति प्रमाण होती है यह डायस्थिति कंडक का उत्कृष्ट प्रमाण है। _ व्याघात में यह समयन्यून कंडक प्रमाण स्थिति उत्कृष्ट अतीत्थापना है और व्याघात कहते हैं स्थितिघात को। यह व्याघात प्राप्त होता है तब ऊपर के स्थान के दलिक को अपवर्तित होती स्थिति के साथ उक्त स्वरूप वाले कंडक प्रमाण स्थितिस्थानों को
१. यहाँ किंचूणा पद उत्कृष्ट स्थिति का विशेषण बताया है जिससे डाय
स्थिति को कुछ न्यून कर्म स्थिति प्रमाण यानि अंतःकोडाकोडी न्यून उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण कहा है और कर्म प्रकृति में इसी पद को डायस्थिति का विशेषण माना है जिससे कुछ न्यून डायस्थिति कंडक का उत्कृष्ट प्रमाण कहा है । इस अंतर को विज्ञजन स्पष्ट करने की कृपा करें।
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