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पंचसंग्रह : ७ संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच में उत्पन्न हो, वहाँ वैक्रिय एकादश को बिना बांधे ही एकेन्द्रिय में उत्पन्न हो और उस एकेन्द्रिय के भव में पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण काल में होती उद्वलना के द्वारा वैक्रिय एकादश को उद्वलित करते द्विचरमखंड का चरम समय में जो दलिक पर प्रकृति में संक्रमित किया जाता है, वह उसका जघन्य प्रदेशसंक्रम जानना चाहिये।
इसी प्रकार कालभेद से अनेक समय का बंधा हुआ उच्चगोत्र और मनुष्यद्विक का जो दल सत्ता में हो, उसे तेज और वायु के भव में उद्वलित कर दिया जाये और उसके बाद पुनः मनुष्यद्विक आदि के बंध योग्य सूक्ष्म एकेन्द्रिय के भव में जाकर अन्तर्मुहूर्त बांधे, वहाँ से निकलकर पंचेन्द्रिय भव में जाकर सातवीं नरकपृथ्वी में जाने योग्य कर्म बंध कर सातवीं नरक पृथ्वी में उत्कृष्ट आयु वाला नारक हो, वहाँ से निकलकर संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच में उत्पन्न हो । इतने काल पर्यन्त उन तीन प्रकृतियों का बंध नहीं करे और प्रदेशसंक्रम द्वारा अनुभव कर कम करे। इसके बाद उस पंचेन्द्रिय के भव में से निकल कर तेज और वायुकाय में उत्पन्न हो, वहाँ मनुष्यद्विक और उच्चगोत्र को चिरोद्वलना-पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण काल में होती उद्वलनाद्वारा उद्वलना करते द्विचरमखंड का चरम समय में जो दलिक पर में संक्रमित किया जाता है, वह उनका जघन्य प्रदेश, संक्रम कहलाता है।
१. यद्यपि जिस भव में नरकयोग्य आयु बांधे और नरक में से निकलकर
जाता है, वे दोनों भव उपर्युक्त तीनों प्रकृतियों के बंधयोग्य हैं । परन्तु यहाँ जघन्य प्रदेशसंक्रम का अधिकार होने से ऐसा जीव लेना है, जो उस बंधयोग्य भव में बंध नहीं करे। इसीलिये बांधे नहीं और प्रदेश संक्रम द्वारा अनुभव कर कम करे यह कहा है। सत्ता में से निकालकर सूक्ष्म एकेन्द्रिय में जाकर बांधने के बाद अन्य किसी स्थान पर बांधता नहीं और कम तो करता है, जिससे सत्ता में अल्प भाग रह जाता है। इसी कारण तेज और वायुकाय में उबलना
करने पर जघन्य प्रदेशसंक्रम घटित हो सकता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only
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