________________
संक्रम आदि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ११४
२३७
सातावेदनीय एवं शुभ पैंतीस प्रकृतियों का जघन्य प्रदेशसंक्रमस्वामित्व
अणुवसमित्ता मोहं सायस्स असायअंतिमे बंधे। - पणतीसा य सुभाणं अपुवकरणालिगा अंते ॥११४॥ शब्दार्थ-अणुवसमित्ता–उपशम न करके, मोह-मोहनीय का, सायस्स–सातावेदनीय का, असायअंतिमे बंधे-असाता के अंतिम बंध में, पणतीसा-पैंतीस, य-और, सुभाणं-शुभ प्रकृतियों का, अपुव्वकरणालिगा अंते-अपूर्वकरण की आवलिका के अंत में। ___ गाथार्थ-मोहनीय का उपशम न करके असाता के अंतिम बंध में सातावेदनीय का जघन्य प्रदेशसंक्रम होता है। पैतीस शुभ प्रकृतियों का जघन्य प्रदेशसंक्रम अपूर्वकरण की आवलिका के अंत में होता है।
विशेषार्थ-मोहनीयकर्म का उपशम न करके अर्थात् उपशमश्रेणि किये बिना असातावेदनीयकर्म के बंध में जो अंतिम बंध, उस अंतिम बंध का जो अंतिम समय-छठे प्रमत्तसंयतगुणस्थान का अंतिम समय, उस अंतिम समय में वर्तमान क्षपकश्रेणि पर आरूढ़ होने के लिये उद्यत जीव के असातावेदनीय में सातावेदनीय को संक्रमित करते साता का जघन्य प्रदेशसंक्रम होता है। सातवें अप्रमत्तविरतगुणस्थान के प्रथम समय से साता का ही बंध होने से सातावेदनीय पतद्ग्रह प्रकृति हो जाने के कारण वह संक्रमित नहीं होती है, परन्तु असाता साता में संक्रमित होती है। यहाँ उपशमणि के निषेध करने का कारण यह है कि उपशमणि में असातावेदनीय के अधिक पुद्गल साता में संक्रमित होने से सातावेदनीय अधिक प्रदेश वाली होती है और वैसा होने पर उसका जघन्य प्रदेशसंक्रम घटित नहीं हो सकता है। तथा
पंचेन्द्रियजाति, समचतुरस्रसंस्थान, तैजससप्तक, प्रशस्तविहायोगति, शुक्ल, लोहित और हारिद्र वर्ण, सुरभिगंध, कषाय, आम्ल Jain Education International For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org