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________________ संक्रम आदि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ११२-११३ २३५ थावरगसमुव्वलणे-स्थावर में जाकर उद्वलना करने पर, मणुदुगउच्चाण-मनुष्यद्विक और उच्चगोत्र का, सुहुमबद्धाणं-सूक्ष्म एकेन्द्रिय में बंधे हुए, एमेव-इसी प्रकार, समुन्वलणे-उद्वलना करते, तेउवाउसुबगयस्स-तेजस्काय और वायुकाय में गये हुए जीव के । ___ गाथार्थ-सत्तागत वैक्रिय एकादशक की उद्वलना करके बंध योग्य भव में अल्पकाल पर्यन्त बांधकर जेष्ठ स्थिति वाले नरक में जाकर और फिर वहाँ से तिर्यंच में जाये, वहाँ बिना बांधे स्थावर में जाकर उद्वलना करते द्विचरमखंड का चरम समय में जो दल पर में संक्रमित किया जाता है, वह वैक्रिय एकादशक का जघन्य प्रदेशसंक्रम कहलाता है । इसी प्रकार सूक्ष्म एकेन्द्रिय में बंधे हुए मनुष्यद्विक और उच्चगोत्र की उद्वलना करते तेजस्काय, वायुकाय में गये हुए जीव के उनका जघन्य प्रदेशसंक्रम होता है। विशेषार्थ-जिस समय वैक्रिय शरीर आदि ग्यारह प्रकृतियों के जघन्यप्रदेश संक्रम का विचार किया जाता है, उससे पूर्व कालभेद से अनेक समय में बंधे हुए देवद्विक, नरकद्विक और वैक्रियसप्तक का जो दल सत्ता में विद्यमान है, उसको एकेन्द्रिय में जाकर उद्वलनासंक्रम की विधि से उद्वलित कर देता है। उद्वलित करने का कारण यह है कि काल भेद से अनेक समय में बांधे गये अधिक दलिक सत्ता में होने के कारण प्रदेशसंक्रम घटित नहीं हो सकता है। इस प्रकार से उद्वलित करके पंचेन्द्रिय में जाकर अल्प काल पर्यन्त बंध करे, बांधकर तेतीस सागरोपम की स्थिति वाली सातवीं नरकपृथ्वी में नारक रूप से उत्पन्न हो, वहाँ उतने काल यथायोग्य रीति से वैक्रिय एकादश का अनुभव कर और फिर वहाँ से निकलकर १. यद्यपि अनुत्तर विमान की भी तेतीस सागरोपम आयु है, परन्तु वहाँ जाकर बाद में एकेन्द्रिय में उत्पन्न नहीं होता है, इसीलिये सातवीं नरक पृथ्वी के नारक का ग्रहण किया है ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001904
Book TitlePanchsangraha Part 07
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages398
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size18 MB
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