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________________ २३४ पंचसंग्रह : ७ है । इसीलिये द्विचरमखंड को ग्रहण किया है । इसी प्रकार अन्यत्र भी समझ लेना चाहिये । तीर्थंकर नामकर्म को बांधते पहले समय जो दलिक बांधा है, उस पहले समय के दलिक को बंधावलिका के जाने के बाद यथाप्रवृत्तसंक्रम के द्वारा पर प्रकृतियों में जो संक्रमित किया जाता है, वह तीर्थंकरनाम का जघन्य प्रदेशसंक्रम जानना चाहिये । अर्थात् तीर्थंकर नाम के बंध के पहले समय जो दलिक बांधा हो, वही शुद्ध एक समय का बांधा हुआ दलिक बंधावलिका के जाने के बाद संक्रमित हो, वह उसका जघन्य प्रदेशसंक्रम है । तीर्थंकरनाम की उवलना नहीं होती है कि जिससे आहारक की तरह द्विचरम खंड का चरम समय में जो पर में संक्रमण हो, उसे जघन्य प्रदेश संक्रम के रूप में कहा जा सके तथा दूसरे अनेक समयों में बंधे हुए को ग्रहण करने से सत्ता में अधिक दलिक होने के कारण प्रमाण बढ़ जाता है और जब उनका संक्रम होगा, तब यथाप्रवृत्तसंक्रम ही होगा । इसीलियें तीर्थंकर नामकर्म के प्रारंभ के बंध समय जो बांधा उसकी बंधावलिका पूर्ण होते ही बाद के समय में जो पहले समय बांधा उसी दल को यथाप्रवृत्तसंक्रम द्वारा संक्रमित होने पर जघन्य प्रदेशसंक्रम होता है, यह कहा है । वैक्रिय एकादश आदि का जघन्य प्रदेशसंक्रमस्वामित्व aradaकारसगं उव्वलियं बंधिऊण अप्पद्ध । जेठट्ठतिनरयाओ उव्वट्टित्ता अबंधित्ता ॥ ११२ ॥ थावरगसमुव्वलणे मणुदुगउच्चाण सहुमबद्धाणं । एमेव समुव्वलणे तेउवाउ सुवगस्स ॥११३॥ शब्दार्थ - बेउव्वेक्कारसगं वैक्रिय एकादशक की, उव्वलियं - उद्वलना करके, बंधिऊन — बांधकर, अप्प - अल्पकाल, जेट्ठट्ठितिनरयाओ - उत्कृष्ट स्थिति वाले नरक से, उब्वट्टित्ता — निकलकर, अबंधित्ता - बिना बांधे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001904
Book TitlePanchsangraha Part 07
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages398
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size18 MB
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