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________________ संक्रम आदि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ११० २३१ द्वारा मिथ्यात्वमोहनीय के बल से सम्यक्त्व और मिश्रमोहनीय को पूरित कर-पुष्ट कर सम्यक्त्व का जो एक सौ बत्तीस सागरोपम उत्कृष्ट काल है, उतने काल सम्यक्त्व को धारण कर-पालन कर और उसके बाद मिथ्यात्व में जाये, वहाँ पल्योपम के असंख्यातवें भाग जितने काल होने वाली उद्वलना द्वारा सम्यक्त्व और मिश्रमोहनीय की उद्वलना करते उनके द्विचरमखंड के दलिक को चरम समय में मिथ्यात्व रूप पर प्रकृति में जितना संक्रमित करे तो वह उनका जघन्य प्रदेशसंक्रम कहलाता है। प्रत्येक खंड की उद्वलना करते अन्तमुहूर्त होता है, उसी प्रकार द्विचरमखंड को भी उद्वलित करते अन्तर्मुहुर्त होता है तथा उद्वलना में स्व में जो संक्रम होता है, उसकी अपेक्षा पर में उत्तरोत्तर अल्प होता है। जिससे द्विचरमखंड का चरम समय में मिथ्यात्व रूप परप्रकृति में जो संक्रम होता है, वह जघन्य प्रदेशसंक्रम जानना चाहिये । चरमखंड के दलिक को तो पर में पूर्व-पूर्व समय से उत्तरोत्तर समय में असंख्यात-असंख्यात गुणाकार से संक्रमित करता है, जिससे चरम समय में उनका जघन्य प्रदेशसंक्रम घटित नहीं हो सकता है, इसीलिये यहाँ द्विचरमखंड का ग्रहण किया है। अनन्तानुबंधी कषाय का जघन्य प्रदेशसंक्रमस्वामित्व संजोयणाण चउरुवसमित्तु संजोयइत्तु अप्पद्ध। छावट्ठिदुगं पालिय अहापवत्तस्स अंतम्मि ॥११०॥ शब्दार्थ-संजोयणाण-अनन्तानुबंधि, चउरुवसमित्तु-चार बार मोहनीय की उपशमना करके, संजोयइत्त-अनन्तानुबंधि का बंध करके, अप्पद्धअल्पकाल पर्यन्त, छावठ्ठिदुर्ग-दो छियासठ सागरोपम, पालिय-पालन कर, अहापवत्तस्स-यथाप्रवृत्तकरण के, अंतम्मि-चरम समय में । गाथार्थ-चार बार मोहनीय की उपशमना करके तत्पश्चात् मिथ्यात्व में जाकर अल्पकाल पर्यन्त अनन्तानुबंधि का बंध करके सम्यक्त्व प्राप्त करे और उसको दो छियासठ सागरोपम www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.001904
Book TitlePanchsangraha Part 07
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages398
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size18 MB
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