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________________ पंचसंग्रह : ७ इसीलिये चार बार पालकर अंत में अनन्तानुबंधि की विसंयोजना करते यथाप्रवृत्तकरण के चरम समय में उनका जघन्य प्रदेशसंक्रम होता है । विशेषार्थ-चार बार मोहनीय कर्म की सर्वोपशमना करे, क्योंकि चार बार मोहनीय की उपशमना करने से अधिक कर्म पुद्गलों का क्षय होता है और वह इस प्रकार कि चारित्रमोहनीय प्रकृतियों की उपशमना करने वाला स्थितिघात, रसघात, गुणश्रेणि और गुणसंक्रम द्वारा अधिक पुद्गलों का नाश करता है । मोहनीय का सर्वोपशम करने का संकेत किया है । इसके बाद अर्थात् चार बार मोहनीय की सर्वोपशमना करके मिथ्यात्व में जाये, वहाँ अल्पकाल पर्यन्त अनन्तानुबंधि का बंध करे । यहाँ जब अनन्तानुबंधि बांधता है तब चारित्रमोहनीय का दलिक सत्ता में अल्प ही होता है । क्योंकि चार बार मोहनीय के सर्वोपशमनाकाल में स्थितिघात आदि के द्वारा क्षय किया है, जिससे अनन्तानुबंधि को बांधते उसमें यथाप्रवृत्तसंक्रम द्वारा अत्यन्त अल्प चारित्रमोहनीय के दलिक को संक्रमित करता है । फिर अन्तर्मुहूर्त बीतने के बाद पुनः सम्यक्त्व प्राप्त करे और उसे दो छियासठ सागरोपम पर्यन्त पालन कर अनन्तानुबंधि कषाय की क्षपणा करने के लिये प्रयत्नशील के अपने यथाप्रवृत्तकरण के चरम समय में विध्यातसंक्रम द्वारा संक्रमित करते उसका जघन्य प्रदेशसंक्रम होता है । अपूर्वकरण में तो गुणसंक्रम होने से जघन्य प्रदेशसंक्रम घटित नहीं हो सकता, यहाँ अनन्तानुबंधि की विसंयोजना करने के लिये जो तीन करण होते हैं, उनमें का पहला यथाप्रवृत्तकरण लेना चाहिये । आहारकद्विक, तीर्थंकर नाम का जघन्य प्रदेशसंक्रमस्वामित्व २३२ हस्सं कालं बंधिय विरओ आहारमविरइं गंतु । चिरओव्वलणे थोवो तित्थं बंधालिगा परओ ॥ १११ ॥ शब्दार्थ -- हस्सं कालं - - अल्पकाल पर्यन्त, बंधिय - बांधकर, विरओअप्रमत्तविरत, आहारमविरइं गंतु आहारकद्विकको अविरत में जाकर, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001904
Book TitlePanchsangraha Part 07
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages398
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size18 MB
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