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संक्रम आदि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १०८
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अरति-शोक आदि का जघन्य प्रदेशसंक्रमस्वामित्व
अरइसोगट्ठकसाय असुभधुवबन्धि अथिरतियगाणं । अस्सायस्स य चरिमे अहापवत्तस्स लहु खवगे ॥१०८॥ शब्दार्थ-अरइसोगट्ठकसाय-अरति, शोक, मध्यम आठ कषाय, असुभधुवबंघि-अशुभ ध्र वबंधिनी नामकर्म की प्रकृतियों, अथिरतियगाणंअस्थिरत्रिक का, अस्सायस्स-असातावेदनीय का, य-और, चरिमे-चरम समय में, अहापवत्तस्स-यथाप्रवृत्तकरण के, लहु--शीघ्र, खवगे-क्षपक के । __ गाथार्थ--अरति, शोक, मध्यम आठ कषाय, ध्रुवबंधिनी नामकर्म की अशुभ प्रकृतियों, अस्थिरत्रिक और असातावेदनीय का जघन्य प्रदेशसंक्रम शीघ्र क्षपक के यथाप्रवृत्तकरण के चरम समय में होता है।
विशेषार्थ-अरति, शोक, नामकर्म की अशुभ ध्र वबंधिनी अशुभ वर्ण आदि नवक और उपघात, अस्थिरत्रिक-अस्थिर, अशुभ, अयशःकीति तथा असातावेदनीय, कुल सोलह प्रकृतियों का शीघ्र सत्ता में से निर्मूल करने के लिये प्रयत्नशील जीव के यथाप्रवृत्तकरणअप्रमत्तसंयतगुणस्थान के चरम समय में यथाप्रवृत्तसंक्रम द्वारा संक्रमित करते जघन्य प्रदेशसंक्रम होता है।
१ यहाँ शीघ्र का अर्थ यह समझना चाहिये कि सात मास गर्भ के और
उसके बाद के आठ वर्ष कुल मिलाकर सात मास अधिक आठ वर्ष का
अतिक्रमण कर सत्ता में से निर्मूल करने के लिये प्रयत्नशील जीव । २ गुण या भव निमित्त से अबध्यमान प्रकृतियों का विध्यातसंक्रम होता है,
यह गाथा ६६ में स्पष्ट किया गया है। अरति, शोक, अस्थिरत्रिक और असातावेदनीय ये छह प्रकृतियां बध में से छठे गुणस्थान में विच्छिन्न होती हैं, जिससे सातवें गुणस्थान में उनका विध्यातसंक्रम द्वारा संक्रमित करते जघन्य प्रदेशसंक्रम होना चाहिये। परन्तु यहाँ यथाप्रवृत्तसंक्रम
द्वारा कहने का क्या कारण है ? विद्वज्जनों से स्पष्टता की अपेक्षा है । Jain Education International For Private & Personal Use Only
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