________________
२२८
पंचसंग्रह : ७ संक्रमित करते स्त्यानद्धित्रिक, स्त्रीवेद और मिथ्यात्वमोहनीय का जघन्य प्रदेशसंक्रम होता है। ___ अपूर्वकरण में गुणसंक्रम संभव होने से जघन्य प्रदेशसंक्रम नहीं होता है। उसमें भी क्षपकश्रेणि पर आरूढ़ हुए जीव के स्त्यानद्धित्रिक और स्त्रीवेद का अप्रमत्तसंयतगुणस्थान के चरम समय में जघन्य प्रदेशसंक्रम होता है। क्योंकि श्रेणि पर आरूढ़ होने वाले के सातवां गुणस्थान ही यथाप्रवृत्तकरण माना जाता है। आठवें गुणस्थान से अबध्यमान अशुभ प्रकृतियों का गुणसंक्रम प्रवर्तित होने से जघन्य प्रदेशसंक्रम नहीं हो सकता है, इसीलिये अप्रमत्त-यथाप्रवृत्तकरण के चरम समय में विध्यातसंक्रम द्वारा संक्रमित करते जघन्य प्रदेशसंक्रम होता है । तथा--
क्षायिकसम्यक्त्व का उपार्जन करते जिनकालिक प्रथम संहनन वाले चौथे से सातवें गुणस्थान तक में वर्तमान मनुष्य के दर्शनत्रिक का क्षय करने के लिये किये गये तीन करण में के यथाप्रवृत्तकरण के चरम समय में विध्यातसंक्रम द्वारा संक्रमित करते मिथ्यात्वमोहनीय का जघन्य प्रदेशसंक्रम होता है। अपूर्वकरण में गुणसंक्रम प्रवर्तित होने से यथाप्रवृत्तकरण का चरम समय ग्रहण किया है।
१ यद्यपि उपर्युक्त प्रकृतियों का यथाप्रवृत्तसक्रम द्वारा संक्रमित करते अपने
अपने यथाप्रवृत्त करण के चरम . समय में जघन्य प्रदेशसंक्रम होता है, ऐसा ग्रन्थकार आचार्य ने अपनी स्वोपज्ञवृत्ति में स्पष्ट किया है । परन्तु गुण या भव के निमित्त से जो प्रकृतियां बंधती नहीं, उनका विध्यातसंक्रम इसी ग्रन्थ में पहले कहा है, यथाप्रवृत्तसंक्रम नहीं। गुणनिमित्त से उपर्युक्त प्रकृतियों का अबंध तीसरे गुणस्थान से हुआ है, इसलिये उनका विध्यातसंक्रम होना चाहिये, यथाप्रवृत्तसंक्रम नहीं । इसी कारण मलयगिरिसूरि ने विध्यातसंक्रम द्वारा संक्रमित करते जघन्य प्रदेशसंक्रम होता है, यह इस गाथा की टीका में कहा है । तत्त्व केवलीगम्य है। विद्वज्जन इसको स्पष्ट करने की कृपा करें।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org