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पंचसंग्रह : ७
सुभधुवचउवीसाए होइ अणुक्कोस साइपरिवज्जो।
उज्जोयरिसभओरालियाण चउहा दुहा सेसा ॥६७॥ शब्दार्थ-सुभधुवचउवीसाए-ध्र वबंधिनी शुभ चौबीस प्रकृतियों का, होइ–होता है, अणुक्कोस-अनुत्कृष्ट, साइपरिवज्जो-सादि के बिना, उज्जोयरिसभओरालियाण----उद्योत, वज्रऋषभनाराचसंहनन और औदारिकसप्तक का, चउहा-चार प्रकार का, दुहा-दो प्रकार के, सेसा-शेष ।
गाथार्थ-ध्रुवबंधिनी शुभ चौबीस प्रकृतियों का अनुत्कृष्ट अनुभागसंक्रम सादि के बिना तीन प्रकार का है तथा उद्योत, वज्रऋषभनाराचसंहनन और औदारिकसप्तक का अनुत्कृष्ट रससंक्रम चार प्रकार का है और शेष विकल्प दो प्रकार के हैं।
विशेषार्थ-प्रायः जिन प्रकृतियों का सम्यग्दृष्टि जीवों के ध्रुव बंध होता है ऐसी शुभ ध्रुव-त्रसदशक, सातावेदनीय, पंचेन्द्रियजाति, अगुरुलघु, उच्छ्वास, निर्माण, प्रशस्तविहायोगति, समचतुरस्रसंस्थान, पराघात, तैजस, कार्मण, शुभवर्णचतुष्क-चौबीस प्रकृतियों का अनुत्कृष्ट अनुभागसंक्रम सादि को छोड़कर अनादि, ध्रुव और अध्र व इस तरह तीन प्रकार का है। यदि तैजस और कार्मण के ग्रहण से उसका सप्तक और शुभवर्णादि चतुष्क के स्थान पर शुभवर्णादि एकादश को लिया जाये तो चौबीस में बारह को मिलाने पर छत्तीस प्रकृतियां होती हैं । अतः विस्तार से इन छत्तीस प्रकृतियों के अनुत्कृष्ट अनुभागसंक्रम के भंगों का विचार किया जाये तो वह अनादि, ध्रुव और अध्र व इस तरह तीन प्रकार का जानना चाहिये ।
अब इन तीन भंगों को घटित करते हैं—इन चौबीस प्रकृतियों
१. कर्मप्रकृति में 'तिविहो छत्तीसाए अणुक्कोसो' इस पद से छत्तीस प्रकृ
तियां ग्रहण की हैं । अतएव विवक्षावशात् बंधन, संघातन और वर्णादि के भेद ग्रहण करें तो भी कोई विरोध नहीं है ।
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