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________________ संक्रम आदि करणत्रय - प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६६ १५१ करता है, उसे जघन्य रससंक्रम कहा है । अनन्तानुबंधि के सिवाय दूसरी कोई भी मोहप्रकृति सत्ता में से सर्वथा नष्ट होने के बाद पुनः बंधकर सत्ता प्राप्त नहीं करती, किन्तु अनन्तानुबंधिकषाय ही ऐसी है कि सत्ता में से सर्वथा नाश होने के बाद मिथ्यात्व रूप बीज नाश न हुआ हो तो पुनः सत्ता में आ सकती है । इसीलिये उसके जघन्य रससंक्रम का काल और संज्वलनादि के जघन्य रससंक्रम का काल पृथक्पृथक् बताया है ।' इसके अतिरिक्त इन सत्रह प्रकृतियों का समस्त अनुभागसंक्रम अजघन्य है । उपशमश्रेणि में सर्वथा उपशांत इन सत्रह प्रकृतियों का अजघन्य अनुभागसंक्रम नहीं होता है। किन्तु वहाँ से गिरने पर होता है, इसलिये वह सादि है । जिसने उस स्थान को प्राप्त नहीं किया, उसकी अपेक्षा अनादि, भव्य की अपेक्षा अध्रुव और अभव्य की अपेक्षा ध्रुव है ।' ज्ञानावरणपंचक, स्त्यानद्धित्रिक रहित दर्शनावरणषट्क और अन्तरायपंचक रूप सोलह प्रकृतियों का क्षपक क्षीणमोहगुणस्थानवर्ती जीव है। इन प्रकृतियों का अजघन्य अनुभागसंक्रम सादि के सिवाय अनादि, ध्रुव और अध्रुव इस तरह तीन प्रकार का है । वह इस तरह जानना चाहिये - इन सोलह प्रकृतियों का जघन्य अनुभाग संक्रम क्षीणकषायगुणस्थान की समयाधिक एक आवलिका स्थिति शेष रहे, तब होता है । एक समय प्रमाण होने से वह सादि-सांत है । उसके सिवाय शेष समस्त अनुभागसंक्रम अजघन्य है । उसकी आदि नहीं है, अतः अनादि है । भव्य के अध्रुव और अभव्य के ध्रुव है । तथा १. इसी प्रकार प्रायः जिन प्रकृतियों का नाश होने के पश्चात् पुनः बंध हो सकता हो, उनका जवन्य अनुभागसंक्रम अनन्तानुबंधि के समान कहना चाहिये । Jain Education International www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.001904
Book TitlePanchsangraha Part 07
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages398
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size18 MB
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