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संक्रम आदि करणत्रय - प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६७
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का उत्कृष्ट अनुभाग क्षपकश्रेणि में वर्तमान क्षपक अपने-अपने बंधविच्छेद के समय बांधता है । उस उत्कृष्ट रस को बांधने के अनन्तर बंधावलिका के बीतने के बाद संक्रमित करना प्रारम्भ करता है और उसको वहाँ तक संक्रमित करता है, यावत् सयोगिकेवली का चरम समय प्राप्त हो । क्षपक बादरसंपराय, सूक्ष्मसंपराय, क्षीणमोह और योगिकेवली के सिवाय शेष सबको इन प्रकृतियों का अनुत्कृष्ट अनुभागसंक्रम होता है । उसकी आदि नहीं है, अनादि काल से हो रहा है, इसलिये अनादि है । अभव्य की अपेक्षा ध्रुव - अनन्त और भव्य की अपेक्षा अ व सांत है ।
उद्योत, वज्रऋषभनाराचसंहनन और औदारिकसप्तक का अनुत्कृष्ट अनुभागसंक्रम सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुव इस तरह चार प्रकार का है । वह इस प्रकार - उद्योत के सिवाय शेष उक्त आठ प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभाग अत्यन्त विशुद्ध परिणामी सम्यग्दृष्टि देव बांधता है और बांधकर आवलिका के व्यतीत होने के अनन्तर संक्रमित करता है तथा उद्योतनाम का सम्यक्त्व को प्राप्त करता हुआ अनिवृत्तिकरण के चरम समय में वर्तमान मिथ्यादृष्टि सातवीं नरक पृथ्वी का जीव उत्कृष्ट अनुभाग बांधता है और उसे बंधावलिका के बीतने के बाद संक्रमित करता है । वह नौ प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभाग को जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट दो छियासठ सागरोपम पर्यन्त संक्रमित करता है । यद्यपि सातवीं नरक पृथ्वी में सम्यक्त्व में वर्तमान जीव अंतिम अन्तर्मुहूर्त में तो अवश्य मिथ्यात्व में जाता है, तो भी आगे के तिर्यचभव में जो जीव अपर्याप्तावस्था के अन्तर्मुहूर्त के बाद सम्यक्त्व प्राप्त करेगा, उसको यहाँ ग्रहण नहीं किया है । यहाँ बीच में थोड़ा-सा मिथ्यात्व का काल होने पर भी उसकी विवक्षा नहीं की है । इसलिये दो छियासठ सागरोपम उत्कृष्ट अनुभागसंक्रम का काल कहा है । उत्कृष्ट से गिरने पर अनुत्कृष्ट अनुभाग का संक्रम होता है । वह जब होता है, तब सादि, जिसने उस स्थान को प्राप्त नहीं किया उसकी अपेक्षा अनादि, अभव्य के ध्रुव और भव्य की अपेक्षा अध्रुव है ।
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