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संक्रम आदि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६४
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मात्र होने से सादि-सांत है, उसके सिवाय अन्य सब अजघन्य अनुभागसंक्रम प्रवर्तमान रहता है और वह प्रत्येक आत्मा को अनादिकाल से प्रवर्तित होते रहने से अनादि है, अभव्य के भविष्य में किसी भी काल में नाश नहीं होने से ध्र व-अनन्त है और भव्य बारहवें गुणस्थान के चरम समय में अजघन्य अनुभाग-संक्रम का नाश करेगा, इसलिये उसकी अपेक्षा अध्र व-सांत है। बारहवें गुणस्थान से पतन नहीं होने से अजघन्य अनुभागसंक्रम की सादि-शुरुआत नहीं होती है । - मोहनीय का अजघन्य अनुभागसंक्रम सादि, अनादि, ध्र व और अध्र व इस तरह चार प्रकार है । वह इस प्रकार से जानना चाहिये
क्षपकश्रेणि में वर्तमान जीव के दसवें गुणस्थान की समयाधिक एक आवलिका शेष स्थिति हो तब मोहनीय का जघन्य अनुभागसंक्रम होता है। एक समय मात्र ही होने से वह सादि-सांत है। उसके सिवाय अन्य समस्त अनुभागसंक्रम अजघन्य है, वह उपशमश्रेणि में वर्तमान क्षायिकसम्यक्त्वी के उपशांतमोहगुणस्थान में नहीं होता है, किन्तु उपशांतमोहगुणस्थान से पतन हो तब होता है, इसलिये सादि है, उस स्थान को जिन्होंने अभी तक प्राप्त नहीं किया, उनकी अपेक्षा अनादि, अभव्य की अपेक्षा ध्रुव-अनन्त और भव्य की अपेक्षा अध्र वसांत है।
आयु का अनुत्कृष्ट अनुभागसंक्रम सादि आदि चार प्रकार का है । जो इस प्रकार जानना चाहिये___अप्रमत्तसंयतगुणस्थान में देवायु का उत्कृष्ट अनुभाग बांधकर उसकी बंधावलिका के जाने के बाद संक्रमित करने की शुरुआत करता है और उसे—उत्कृष्ट रस को-अनुत्तर देव के भव में आवलिका न्यून तेतीस सागरोपम पर्यन्त संक्रमित करता है। अर्थात् अनुत्तर देव के भव में रहते उत्कृष्ट रस को वहाँ तक संक्रमित करता है यावत् तेतीस सागरोपम प्रमाण स्थिति जाये और मात्र उसकी एक अंतिम आवलिका स्थिति शेष रहे । उसके सिवाय आयु का समस्त अनुभाग
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