________________
१४८
पंचसंग्रह : ७
संक्रम अनुत्कृष्ट है । अनुत्तर देव में से मनुष्य में आते अनुत्कृष्ट अनुभागसंक्रम प्रवर्तमान रहता है, इसलिये सादि है, उस स्थान को जिसने प्राप्त नहीं किया, उसकी अपेक्षा अनादि, अभव्य की अपेक्षा ध्रुवअनन्त और भव्य की अपेक्षा अध्रुव-सांत है । तथा
साइयवज्जो वेयणियनामगोयाण होइ अणुक्कोसो । सव्वेसु सेसभेया साई अधुवा य अणुभागे ॥ ६५ ॥
शब्दार्थ –साइयवज्जो - सादि के बिना, वेयणियनामगोयाण वेदनीय, नाम और गोत्र कर्म का, होइ— होता है, अणुक्कोसो—अनुत्कृष्ट, सव्वेसुसभी के, सेसभेया -- शेष भेद, साई अधुवा - सादि, अध्रुव, य-और, अणुभागे - अनुभाग संक्रम में ।
गाथार्थ – वेदनीय, नाम और गोत्र कर्म का अनुत्कृष्ट अनुभागसंक्रम सादि के बिना तीन प्रकार का है । सभी कर्मों के शेष भेद सादि और अध्रुव हैं ।
विशेषार्थ - वेदनीय, नाम और गोत्र कर्म का अनुत्कृष्ट अनुभागसंक्रम सादि के सिवाय अनादि, ध्रुव और अध्रुव इस तरह तीन प्रकार का है । जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है
वेदनीय, नाम और गोत्र कर्म के उत्कृष्ट अनुभाग का बंध क्षपकश्रेणि में सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान के चरम समय में होता है । वहाँ उत्कृष्ट रस बांधकर उसकी बंधावलिका के बीतने के बाद सयोगिकेवली के चरमसमय पर्यन्त संक्रमित करता है और अमुक नियत काल पर्यन्त ही उत्कृष्ट रस का संक्रम होने से वह सादि-सांत है । उसके सिवाय अन्य समस्त अनुभागसंक्रम अनुत्कृष्ट है, वह सामान्यतः सभी जीवों को अनादिकाल से होता है, इसलिये अनादि, अभव्य की अपेक्षा ध्रुव - अनन्त और भव्य की अपेक्षा अध्रुव-सांत है ।
सभी मूलकर्मों के अनुभागसंक्रमसम्बन्धी पूर्वोक्त के सिवाय शेष विकल्प सादि, अध्रुव (सांत ) हैं । जैसे कि चार घातिकर्म के उत्कृष्ट,
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org