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संक्रम आदि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६४
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वर्तता हो अथवा अन्य द्वीन्द्रियादि के भव में वर्तता हो, परन्तु जब तक अधिक रस न बांधे तब तक ही जघन्य रस संक्रमित करता है।
इस प्रकार से जघन्य अनुभागसंक्रम-स्वामित्व-प्ररूपणा जानना चाहिये । सुगम बोध के लिये जिसका प्रारूप पृष्ठ १४६ पर देखिए।
अब क्रम प्राप्त साद्यादि प्ररूपणा का विचार करते हैं । साद्यादि प्ररूपणा ___ अनुभागसंक्रम की साद्यादि प्ररूपणा के दो प्रकार हैं-मूल प्रकृतिविषयक और उत्तरप्रकृतिविषयक । उसमें से पहले मूलप्रकृतिविषयक साद्यादि प्ररूपणा करते हैं---
साइयवज्जो अजहण्णसंकमो पढमदुइयचरिमाणं ।
मोहस्स चउविगप्पो आउसणुक्कोसओ चउहा ॥६४॥ शब्दार्थ—साइयवज्जो-सादि के बिना, अजहण्णसंकमो-अजघन्य अनुभागसंक्रम, पढमदुइयचरिमाणं--पहले, दूसरे और अंतिम कर्म का, मोहस्समोहनीयकर्म का, चउविगप्पो-चार प्रकार का, आउसणुक्कोसओ-आयु का अनुत्कृष्ट अनुभाग, चउहा----चार प्रकार का ।
गाथार्थ ---पहले, दूसरे और अंतिम कर्म का अजघन्य अनुभागसंक्रम सादि के बिना तीन प्रकार का तथा मोहनीय का चार प्रकार का और आयु का अनुत्कृष्ट अनुभागसंक्रम चार प्रकार का है। विशेषार्थ-ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अंतराय इन तीन कर्म का अजघन्य अनुभागसंक्रम सादि भंग को छोड़कर अनादि, ध्रुव और अध्रुव इस तरह तीन प्रकार का है। जिसका स्पष्टीकरण यह है
इन तीनों कर्मों का जघन्य अनुभागसंक्रम क्षीणमोहगुणस्थान की समयाधिक एक आवलिका स्थिति शेष हो तब होता है, वह एक समय
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