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________________ १४४ पंचसंग्रह : ७ रस का संक्रम जिसने सत्ता में से प्रभूत अनुभाग का घात किया है ऐसा सूक्ष्म एकेन्द्रिय करता है। विशेषार्थ--अनन्तानुबंधिचतुष्क, तीर्थकरनाम और उद्वलनयोग्य-नरकद्विक, मनुष्यद्विक, देवद्विक, वैक्रियसप्तक, आहारकसप्तक, उच्चगोत्र रूप इक्कीस प्रकृतियों का जघन्य रसबंध के संभव से लेकर बंधावलिका के व्यतीत होने के बाद यानि कि उक्त प्रकृतियों का जघन्य रस बांधकर आवलिका--बंधावलिका के बीतने के अनन्तर जघन्य अनुभाग संक्रमित करता है। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार वैक्रियसप्तक, देवद्विक, नरकद्विक का जघन्य अनुभाग असंज्ञी पंचेन्द्रिय संक्रमित करता है। मनुष्य द्विक और उच्चगोत्र का सूक्ष्मनिगोदिया जीव, आहारकसप्तक का अप्रमत्त, तीर्थंकरनाम का अविरतसम्यग्दृष्टि, अनन्तानुबंधिकषाय का पश्चात्कृतसम्यक्त्व-सम्यक्त्व से गिरा हुआ मिथ्यादृष्टि जघन्य रस संक्रमित करता है । असंज्ञी आदि उस-उस प्रकृति का जघन्य रस बांधकर बंधावलिका के बीतने के बाद संक्रमित कर सकते हैं। इन छब्बीस प्रकृतियों का जघन्यानुभागसंक्रम एक समय मात्र होता है, तत्पश्चात् अजघन्य संक्रम प्रारम्भ होता है। पूर्वोक्त से शेष रही सत्तानवै प्रकृतियों का जिसने सत्ता में से बहुत से रस का नाश किया है, ऐसा तथा सूक्ष्म एकेन्द्रिय को जितने रस की सत्ता होती है, उससे भी अल्प रस को बांधने वाला और उस भव में या अन्य द्वीन्द्रियादि भव में रहते जब तक अन्य अधिक अनुभाग न बांधे, तब तक जघन्य अनुभागको संक्रमित करता हुआ सूक्ष्म एकेन्द्रिय तेजस्कायिक, वायुकायिक जीव जघन्य अनुभागसंक्रम का स्वामी है। क्योंकि अत्यन्त अल्प रस की सत्ता वाला और अत्यन्त अल्प रस बांधता सूक्ष्म एकेन्द्रिय तेजस्कायिक या वायुकायिक उसी भव में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001904
Book TitlePanchsangraha Part 07
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages398
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size18 MB
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