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________________ संक्रम आदि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६३ सम्यक्त्व और मिश्र मोहनीय का क्षपक जीव अपने-अपने चरम खण्ड के संक्रमकाल में जघन्य अनुभाग संक्रमित करता है। चार आयु की जघन्य स्थिति को बांधकर बंधावलिका के जाने के बाद उस-उस आयु की समयाधिक एक आवलिका शेष रहे वहाँ तक जघन्य अनुभाग संक्रमित करता है। यहाँ जघन्य स्थिति का ग्रहण इसलिये किया है कि आयुकर्म में जघन्य स्थिति बंधे तब रस भी जघन्य बंधता है । तथा--- अणतित्थुव्वलगाणं संभवओ आवलिए परएणं । सेसाणं इगिसृहुमो घाइयअणुभागकम्मंसो ॥६३॥ शब्दार्थ-अतित्थुव्वलगाणं-अनन्तानुबंधी, तीर्थकरनाम और उद्वलन योग्य प्रकृतियों के, संभवओ----सम्भव से, आव लिए परएणं-आवलिका के बाद, सेसाणं-शेष प्रकृतियों के, इगिसुहमो-सूक्ष्म एकेन्द्रिय, घाइयअणुभागकम्मंसो—जिसने प्रभूत अनुभाग का घात किया है। गाथार्थ--जघन्य रसबंध के सम्भव से लेकर आवलिका के बाद अनन्तानुबंधी, तीर्थकर और उद्वलनयोग्य प्रकृतियों के जघन्य अनुभाग को संक्रमित करता है। शेष प्रकृतियों के जघन्य किसी भी कर्म की बंध होने तक उद्वर्तना होती है। अर्थात् उद्वर्तना का बंध के साथ सम्बन्ध है, किन्तु अपवर्तना का बंध के साथ सम्बन्ध नहीं है । बंध हो या न हो पर अपवर्तनायोग्य अध्यवसाय चाहे जब होते हैं। चार आयु की जघन्य स्थिति बंधने पर उसका रस भी जघन्य बंधता है । यदि उस जघन्य आयु के बंधकाल तकः में उसके रस की उद्वर्तना न हो तो वैसा ही जघन्य रस सत्ता में रहता है और उसे समयाधिक आवलिका शेष रहे वहाँ तक संक्रमित करता है तथा जहाँजहाँ अन्यस्वरूप करने रूप संक्रम घटित हो सकता है, वहाँ-वहाँ वह संक्रम तथा अन्य स्थान में उद्वर्तना, अपवर्तना जो सम्भव हो वह समझना चाहिये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001904
Book TitlePanchsangraha Part 07
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages398
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size18 MB
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