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________________ १४२ पंचसंग्रह : ७ आयु का, जहण्गठिइ - जघन्यस्थिति, बंधाओ - बंध से, आवली सेसाएक आवलिका शेष तक । गाथार्थ -- जो क्षपक है, वह घाति प्रकृतियों के जघन्य रससंक्रम का स्वामी है । आयु के जघन्य रससंक्रम के स्वामी उस-उस आयु के जघन्य स्थितिबंध से लेकर अपनी समयाधिक आवलिका शेष रहने तक के जीव हैं । विशेषार्थ-घातिकर्म प्रकृतियों के जघन्य रससंक्रम के स्वामी क्षपकश्रेणि में वर्तमान जीव हैं । वे क्षपकश्रेणि में अन्तरकरण करने के बाद स्थितिघातादि द्वारा क्षय करते-करते उन-उन प्रकृतियों की जघन्य स्थिति जहाँ-जहाँ संक्रमित करते हैं, वहाँ-वहाँ जघन्य रस को भी संक्रमित करते हैं । अर्थात् अन्तरकरण करने के बाद अनिवृत्तिबादरसंपरायगुणस्थानवर्ती क्षपक नव नोकषाय और संज्वलनचतुष्क का अन्तरकरण करने के बाद उनका अनुक्रम से क्षय करने पर उस उस प्रकृति की जघन्य स्थिति के संक्रमकाल में जघन्य रस भी संक्रमित करते हैं । ' ज्ञानावरणपंचक, अन्तरायपंचक, दर्शनावरणचतुष्क, निद्राद्विक, इन सोलह प्रकृतियों का समयाधिक आवलिका रूप शेष स्थिति में वर्तमान क्षीणकषायगुणस्थानवर्ती जीव जघन्य अनुभाग संक्रमित करता है। २ क्षपक सूक्ष्म संप रायगुणस्थानवर्ती समयाधिक आवलिका शेष रहे, उसी समय जघन्य स्थितिसंक्रम के स्वामी हैं । अतः संज्वलन लोभ के जघन्य अनुभागसंक्रम के स्वामी वे ही सम्भव हैं । सामान्य से यह कथन जानना चाहिये । क्योंकि निद्राद्विक का तो असंख्येयभागाधिक आवलिकाद्विक शेष रहने पर क्षीणकषायगुणस्थान में जघन्य अनुभाग संक्रम होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001904
Book TitlePanchsangraha Part 07
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages398
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size18 MB
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