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________________ संक्रम आदि करणत्रय - प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६२ १४१ तत्पश्चात् या तो मोक्ष प्राप्त करता है अथवा गिरकर मिथ्यात्व में जाता है । यदि मोक्ष में जाये तो सर्वथा कर्म का क्षय करता है और यदि मिथ्यात्व में जाये तो वहाँ जाने के बाद अन्तर्मुहूर्त के अनन्तर उत्कृष्ट रस का नाश करता है । जिससे ऊपर के गुणस्थानों में दो छियासठ सागरोपम पर्यन्त ही पुण्य प्रकृतियों के उत्कृष्ट रस को सुरक्षित रखता है । सम्यक्त्वादि गुणस्थानवर्ती जीव परिणाम प्रशस्त होने से पुण्य प्रकृतियों के रस को सुरक्षित रख सकता है और पाप प्रकृतियों के रस को कम करता है, किन्तु मिथ्यादृष्टि अन्तर्मुहूर्त से अधिक पुण्य अथवा पाप किसी भी प्रकृति के रस को सुरक्षित नहीं रख सकता है । मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि ये दोनों सम्यक्त्वमोहनीय और मिश्रमोहनी के उत्कृष्ट रस का नाश नहीं करते हैं, परन्तु क्षपक ही नाश करता है । क्षपक क्षयकाल में उन दोनों प्रकृतियों के उत्कृष्ट रस का विनाश करता है । 1 इस प्रकार जघन्य अनुभागसंक्रम का स्वामी कौन हो सकता है ? इसकी सम्भावना का विचार करने के पश्चात् अब जघन्य अनुभागसंक्रमस्वामित्व की प्ररूपणा करते हैं । जघन्य अनुभागसंक्रमस्वामित्व घाईणं जे खवगो जहष्णरसं कमस्स ते सामी । आऊण जहण्णठिइ-बंधाओ आवली सेसा ॥६२॥ शब्दार्थ -घाईणं-- घाति प्रकृतियों का, जे खवगो -- जो क्षपक, जहण्णरससंकमस्स- - जघन्य रससंक्रम का, ते- वह, सामी- स्वामी, आऊण १ सम्मदिट्ठि न हणइ सुभाणुभागं असम्मदिट्ठी वि । सम्मत्तमी सगाणं उक्कस्सं वज्जिया खवणं ॥ Jain Education International - कर्मप्रकृति संक्रमकरण गा. ५६ www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.001904
Book TitlePanchsangraha Part 07
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages398
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size18 MB
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