________________
संक्रम आदि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ५६
१३१
का, इयरासु---इतर प्रकृतियों का, दोट्ठाणि-द्विस्थानक, य—और, जहण्णरस-जघन्य रस, संकमे-संक्रम में, फडं--स्पर्धक ।
गाथार्थ-पुरुषवेद, सम्यक्त्वमोहनीय और संज्वलनचतुष्क का एकस्थानक जघन्य रसस्पर्धक तथा इतर प्रकृतियों का द्विस्थानक जघन्य रसस्पर्धक संक्रमित होता है।
विशेषार्थ-पुरुषवेद, सम्यक्त्वमोहनीय एवं संज्वलन क्रोध, मान, माया और लोभ का एकस्थानक रस सम्बन्धी अल्पातिअल्प रस वाला जो स्पर्धक, वह जब संक्रमित हो तब उसे उनका जघन्य अनुभागसंक्रम हुआ कहते हैं।
इतर-शेष कर्मप्रकृतियों के जघन्य रससंक्रम के विषय में द्विस्थानक रसस्पर्धक समझना चाहिये । अर्थात् शेष प्रकृतियों में उनका सर्वजघन्य----अल्पातिअल्प रस वाला द्विस्थानक रसस्पर्धक जब संक्रमित हो तब वह उनका जघन्य अनुभागसंक्रम हुआ कहलाता है।
यद्यपि मति, श्रुत, अवधि और मनपर्याय ज्ञानावरण, चक्षु, अचक्षु और अवधि दर्शनावरण तथा अन्तरायपंचक इन प्रकृतियों का एकस्थानक रस भी बंध में होता है-बंधता है, लेकिन क्षयकाल में जब जघन्य रसस्पर्धक संक्रमित होता है, तब द्विस्थानक रस भी संक्रमित होता है अर्थात् द्विस्थानक रस के साथ एकस्थानक रस भी संक्रमित होता है, केवल एकस्थानक रस संक्रमित नहीं होता है । इसीलिये इन प्रकृतियों का जघन्य रससंक्रम का विषयभूत एकस्थानक रस नहीं कहा है।
कदाचित् यहाँ यह कहा जाये कि जब उपर्युक्त प्रकृतियों का एकस्थानक रस बंधता है तब जघन्य रससंक्रमकाल में एकस्थानक रस
१. यह संक्रम कब होता है ? इसका स्पष्टीकरण आगे संक्रमस्वामित्व प्ररू
पणा में किया जा रहा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org