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________________ १३० पंचसंग्रह : ७ होता है, वेयगे---वेदकसम्यक्त्व का, वि-भी, हु-नियम से, सेसासुक्कोसओ---शेष प्रकृतियों का उत्कृष्ट, परमो-चरम-चतुःस्थानक । ___ गाथार्थ-जिन प्रकृतियों का रस संक्रम के विषय में द्विस्थानक ही होता है, उनका उत्कृष्ट से वही रस संक्रमित होता है। वेदकसम्यक्त्व का भी नियम से उतना ही तथा शेष प्रकृतियों का उत्कृष्ट चतुःस्थानक रस संक्रमित होता है। विशेषार्थ-मिश्रमोहनीय, आतप, मनुष्यायु और तिर्यंचायु रूप प्रकृतियों का द्विस्थानक रस ही संक्रमित होता है। असंभवता के कारण अथवा तथास्वभावरूप कारण से अन्य प्रकार का रस संक्रमित नहीं हो सकता है। इन प्रकृतियों का उत्कृष्ट भी द्विस्थानक रस ही संक्रमित होता है, किन्तु अन्य किसी प्रकार का रस संक्रमित नहीं होता है। वेदकसम्यक्त्व-सम्यक्त्वमोहनीय का भी उत्कृष्ट द्विस्थानक रस ही संक्रमित होता है । यद्यपि उसका एकस्थानक रस भी है, लेकिन वह जघन्य है तथा त्रि अथवा चतुःस्थानक रस मिश्र एवं सम्यक्त्व मोहनीय का होता ही नहीं है तथा शेष समस्त प्रकृतियों का संक्रम की अपेक्षा उत्कृष्ट से चतुःस्थानक रस होता है। इस प्रकार से संक्रमापेक्षा उत्कृष्ट रस का स्वरूप जानना चाहिये। अब जघन्य रस कितने स्थानीय संक्रमित किया जाता है ? इसको स्पष्ट करते हैं। संक्रमापेक्षा जघन्य रस एकट्ठाणजहन्नं संकमा पुरिससम्मसंजलणे । इयरासु दोहाणि य जहण्णरससंकमे छड्डं ॥५६॥ शब्दार्थ-एकट्ठाण-एकस्थानक, जहन्नं-जघन्य, संकमइ-संक्रमित होता है, पुरिससम्मसंजलणे-पुरुषवेद, सम्यक्त्वमोहनीय और संज्वलनचतुष्क Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001904
Book TitlePanchsangraha Part 07
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages398
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size18 MB
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