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पंचसंग्रह : ७
जघन्य स्थितिसंक्रम क्यों नहीं कहा ?
उत्तर-समस्त सूक्ष्म या बादर किसी भी प्रकार के योगरहित मेरु पर्वत की तरह स्थिर ऐसे अयोगिकेवली भगवान आठ करणों में से किसी भी करण को नहीं करते हैं, क्योंकि निष्क्रिय हैं, मात्र स्वतः उदय प्राप्त कर्म का ही वेदन करते हैं इसलिये सयोगिकेवली को ही उन प्रकृतियों का जघन्य स्थितिसंक्रम हाता है।
उक्त प्रकृतियों से शेष रही स्त्यानद्धित्रिक, मिथ्यात्व, मिश्रमोह, अनन्तानुबंधि, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण रूप बारह कषाय स्त्रीवेद, नपुसकवेद, नरकद्विक, तिर्यंचद्विक, पंचेन्द्रियजाति के सिवाय जातिचतुष्क, स्थावर, सूक्ष्म, साधारण, आतप और उद्योत इन बत्तीस प्रकृतियों का अपने-अपने क्षयकाल में पल्यमोपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण स्थितिखंड का जो अंतिम संक्रम होता है, वह उन प्रकृतियों का जघन्य स्थितिसंक्रम है ।।
इस प्रकार से जघन्य स्थितिसंक्रम का प्रमाण जानना चाहिये। अब जघन्य स्थितिसंक्रम के स्वामियों का विचार करते हैं। जघन्य स्थितिसंक्रम के स्वामी
मिथ्यात्व और मिश्र इन दो प्रकृतियों के क्षयकाल में सर्वापमिथ्यात्व, मिश्र और अनन्तानुबंधि के सिवाय शेष प्रकृतियों को क्षपक श्रेणि पर आरूढ़ हुआ जीव नौवे गुणस्थान में क्षय करता है और मिथ्यात्व आदि छह प्रकृतियों को क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त करने वाले चौथे से सातवें गुणस्थान तक के जीव क्षय करते हैं । इन प्रकृतियों की स्थिति को क्षय करते-करते अंतिम पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग प्रमाण खंड रहे और उसको भी क्षय करते हुए वह अंतिम स्थितिघात के अन्तर्मुहूर्त काल के चरम समय में सर्वसंक्रम द्वारा संक्रमित करने से सत्ता रहित होता है। इसीलिये इन प्रकृतियों का पल्योपम का असंख्यातवां भाग प्रमाण जघन्यस्थितिसंक्रम कहा है।
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