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संक्रम आदि क रणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ४६
स्थितिसंक्रम होता है । सयोग्यन्तक उन प्रकृतियों के नाम इस प्रकार हैं-नरकद्विक, तिर्यंचद्विक पंचेन्द्रियजाति के सिवाय जातिचतुष्क, स्थावर, सूक्ष्म, साधारण, आतप और उद्योत इन तेरह के सिवाय नामकर्म की नव्वै प्रकृतियां, साता-असातावेदनीय और उच्च-नीचगोत्र । इन चौरानवै प्रकृतियों का जघन्य स्थितिसंक्रम अन्तर्मुहूर्त प्रमाण होता है। क्योंकि सयोगि के इन चौरानवै प्रकृतियों की स्थिति सत्ता में अन्तमुहूर्त प्रमाण ही होती है। ___ अन्तमुहर्त प्रमाण उस स्थिति को चरम समय में सर्वापवर्तना द्वारा अपवर्तित करके घटा करके अयोगि के कालप्रमाण करता है। यद्यपि अयोगिकेवलीगुणस्थान का काल अन्तमुहूर्तप्रमाण है, परन्तु वह पूर्वोक्त प्रकृतियों के सत्ताकाल से छोटा होता है। जिससे सर्वापवर्तना द्वारा अयोगि के कालप्रमाण स्थिति को शेष रखकर बाकी की अन्तमुहर्तप्रमाण स्थिति को अपवर्तित करता है, जिससे यहाँ अन्तमुहर्तप्रमाण स्थिति को घटाने रूप अपवर्तनासंक्रम रूप स्थितिसंक्रम होता है। इसीलिये उन चौरानवै प्रकृतियों का अन्तमुहूर्तप्रमाण जघन्य स्थितिसंक्रम कहा है।
सयोगि के चरमसमय में सर्वापवर्तना होने से जघन्य स्थितिसंक्रम का स्वामी सयोगिकेवली है । सर्वापर्वर्तना द्वारा उदयावलिकारहित स्थिति की अपवर्तना होती है और उदयावलिका सकल करण के अयोग्य होने से उसकी अपवर्तना होती नहीं है । जिससे जिस समय सर्वापवर्तना प्रवर्तमान होती है, उस समय यत्स्थिति—कुल स्थिति उदयावलिका को मिलाने से जितनी हो उतनी समझना चाहिये।
शंका-जैसे मतिज्ञानावरण आदि प्रकृतियों की समयाधिक आवलिका स्थिति शेष रहे तब क्षीणमोहगुणस्थान में समयप्रमाण जघन्य स्थितिसंक्रम कहा है, उसी प्रकार अयोगिकेवलीगुणस्थान में उन चौरानवै प्रकृतियों की समयाधिक आवलिका स्थिति शेष रहे तब उदयावलिका से ऊपर की समय प्रमाण स्थिति घटाने रूप
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