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संक्रम आदि करणत्रय - प्ररूपणा अधिकार : गाथा ४६
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वर्तना द्वारा अपवर्तित करके सत्ता में रहे हुए पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण उसके चरम खंड को संक्रमित करने वाले अविरत, देशविरत, प्रमत्त और अप्रमत्त मनुष्य जघन्य स्थितिसंक्रम के स्वामी हैं ।'
अनन्तानुबंधी की विसंयोजना करते अनिवृत्तिकरण में सर्वाप - वर्तना द्वारा अपवर्तित करके सत्ता में रखे हुए पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण चरमखंड को सर्वसंक्रम द्वारा संक्रमित करने वाले चारों गति के सम्यग्दृष्टि जीव जघन्य स्थितिसंक्रम के स्वामी हैं ।
शेष स्त्यानद्धित्रिक आदि छब्बीस प्रकृतियों को क्रमपूर्वक क्षय करते हुए सर्वापवर्तना द्वारा अपवर्तित करके सत्ता में रखे हुए अपनेअपने पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण चरम खंड को संक्रमित करते नौवें अनिवृत्तिबादरसंपरायगुणस्थानवर्ती जीव जघन्य स्थितिसंक्रम के स्वामी हैं ।
जिस काल में जघन्य स्थितिसंक्रम होता है, उस काल में स्त्री, नपुसंक वेद को छोड़कर शेष प्रकृतियों की यत्स्थिति, जितनी स्थिति का जघन्य संक्रम होता है, उससे एक आवलिका अधिक है और स्त्रीवेद, नपुसंक वेद की अन्तर्मुहूर्त अधिक है ।
आवलिका और अन्तर्मुहूर्त अधिक यत्स्थिति इस प्रकार जानना चाहिये कि स्त्रीवेद और नपुसंकवेद को छोड़कर शेष प्रकृतियों का पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण चरम स्थितिखंड नीचे की एक उदयावलिका छोड़कर संक्रमित होता है। क्योंकि उदयावलिका सकल करण के अयोग्य है । जिससे इन तीस प्रकृतियों के जघन्य स्थिति
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मिथ्यात्व और मिश्र मोहनीय का सर्वथा क्षय जिनकालिक प्रथम संहननी मनुष्य ही करने वाले होने से उन्हीं को जघन्य स्थितिसंक्रम का स्वामी
कहा है ।
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