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संक्रम आदि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ३४
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संक्रम । इस प्रकार तीनों का समूह प्रकृतिबंध होने से प्रकृति का जब संक्रम हो तब तीनों का ही संक्रम होता है ।
अब यदि यह प्रश्न हो कि तीनों का समूह जब प्रकृतिसंक्रम है तब प्रकृतिसंक्रम भिन्न कैसे हो सकता है ? तो इसका उत्तर यह है कि समुदायी-अवयवी से समुदाय-अवयव कथंचित् भिन्न होते हैं । जैसे कि समस्त शरीर से हाथ-पैर आदि कुछ भिन्न होते हैं। उसी प्रकार स्थितिसंक्रम आदि से प्रकृतिसंक्रम कथंचित् भिन्न है । स्थितिसंक्रम
और अनुभागसंक्रम का स्वरूप पूर्व में कहा जा चुका है, उसी प्रकार यहाँ भी समझना चाहिये।
स्थितिसंक्रम आदि के संबन्ध में उक्त स्पष्टीकरण करने पर भी जिज्ञासु द्वारा पुनः किये गये प्रश्न का उत्तर--
दलियरसाणं जुत्तं मुत्तत्ता अन्नभावसंकमणं ।
ठिईकालस्स न एवं उउसंकमणं पिव अदुढें ॥३४॥ शब्दार्थ--- दलियरसाणं-दलिक और रस का, जुत्तं--योग्य है, मुत्तत्तामूर्त होने से, अन्नभावसंकमणं-अन्य रूप संक्रमण होना, ठिईकालस्सस्थिति-काल का, न एवं-इस प्रकार नहीं है, उउसंकमणं--ऋतुसंक्रम, पिवकी तरह, अदुळं-निर्दोष । ___ गाथार्थ-दलिक और रस मूर्त होने से उनका अन्य रूप संक्रमण योग्य है, परन्तु स्थिति काल इस प्रकार न होने से उनका संक्रम योग्य नहीं है। (उत्तर) ऋतुसंक्रम की तरह काल का संक्रम निर्दोष है।
विशेषार्थ-जिज्ञासु का प्रश्न है कि-पृथ्वी और जल की तरह कर्मपरमाणुओं और उनके अंदर रहे रस के मूर्त होने से उनका अन्य रूप संक्रम हो तो वह योग्य है। परन्तु काल अमूर्त है अतः काल का अन्य रूप में संक्रम कैसे घटित हो सकता है ? ___ इसका उत्तर देते हुए आचार्य स्पष्ट करते हैं---
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