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पंचसंग्रह : ७
__ यह प्रश्न अयोग्य है। क्योंकि हम स्थिति का संक्रम मानते हैं काल का नहीं। स्थिति यानि अवस्था-कर्मपरमाणुओं का अमुक स्वरूप में रहना। वह स्थिति पूर्व में अन्य रूप थी किन्तु अब जब संक्रम होता है तब पतद्ग्रहरूप की जाती है। अर्थात् पहले जो परमाणु जितने काल के लिये जो फल देने के लिये नियत हुए थे, वे परमाणु उतने काल अन्य रूप में फल दें वैसी स्थिति में स्थापित किये जाते हैं, उसे हम स्थितिसंक्रम कहते हैं और इसका कारण प्रत्यक्षसिद्ध है । वह इस प्रकार
जैसे तुण आदि के परमाणु जो पहले तण आदि रूप में थे, वे नमक की खान में गिर जाने पर कालक्रम से नमक रूप हो जाते हैं। तात्पर्य यह है कि अन्य रूप में रही हई वस्तु अन्य रूप में हो जाती है। वैसे ही अध्यवसाय के योग से अन्य रूप रहे हए परमाणु अन्य रूप में हो जाते हैं । अथवा
स्थिति, काल का संक्रमण हो, इसमें भी कोई दोष नहीं है । क्योंकि 'उउसंकमणं पिव अदुह्र' अर्थात् ऋतुसंक्रमण की तरह स्थितिकाल का संक्रमण भी निर्दोष है । अर्थात् वृक्षादि में स्वभाव से क्रमश: और देवादिक के प्रयोग द्वारा एक साथ भी जैसे सभी ऋतुयें संक्रमित होती हैं। क्योंकि उस ऋतु के कार्य--उस-उस प्रकार के पुष्प और फल आदि रूप में दिखते हैं, वैसे ही यहाँ भी आत्मा स्ववीर्य के योग से कर्मपरमाणुओं में के सातादि स्वरूप के हेतुभूत काल को अलग करके असातादि के हेतुभूत काल को संक्रमित करती है--असातादि के हेतुभूत काल को करती है । इसलिये वह भी निर्दोष है।
इस प्रकार से प्रकृतिसंक्रम विषयक वक्तव्यता जानना चाहिये । अब स्थितिसंक्रम का विवेचन प्रारंभ करते हैं। २. स्थितिसंक्रम
स्थितिसंक्रम को प्रारंभ करने के पूर्व प्रकृतिसंक्रम के सामान्य लक्षण को बाधित न करे, वैसा स्थितिसंक्रम का विशेष लक्षण कहते हैं ।
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