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पंचसंग्रह : ७ इस प्रकार होने से पूर्व में जो प्रश्न किया था कि प्रकृति यानि स्वभाव, उसका जो संक्रम प्रकृतिसंक्रम यह माना जाये तो वह अयुक्त है। इसका कारण यह है कि स्वभाव को परमाणुओं में से खींचकर अन्यत्र संक्रमित नहीं किया जा सकता है आदि यह सब अयोग्य है । क्योंकि विवक्षित परमाणुओं में से स्वभाव, स्थिति और रस खींचकर अन्य परमाणुओं में प्रक्षिप्त किया जाये, वह प्रकृतिसंक्रम आदि कहलाता है, ऐसा हम नहीं कहते हैं, परन्तु विवक्षित परमाणुओं में विद्यमान स्वभाव आदि को परिवर्तित करके पतद्ग्रहप्रकृति के स्वभाव आदि का अनुसरण करने वाला बना देने को प्रकृतिसंक्रम आदि कहते हैं। जिससे यहाँ कोई दोष नहीं है और इस प्रकार होने से ही एक दूसरे, बिना एक दूसरे के रह नहीं सकते, एक के होने पर सब होते हैं । ऐसा जब हो तब सब कुछ घटित हो जाता है। इसी आशय को स्पष्ट करने के लिये स्वयं ग्रन्थकार आचार्य ने अपनी मूल टीका में कहा है कि
अमी प्रकतिस्थित्यनभागप्रदेशेष संत्रमा बन्धा वा उदया वा समकंसमकालं प्रवर्तन्ते इति केवलं युगपदभिधातु न शक्यन्ते, वाचः क्रमवर्तित्वात्, ततो यो यदा संक्रमोवक्तुमिष्यते स तदानीं बुद्ध या पृथक्कृत्वा सप्रपञ्चमुच्यते ।
अर्थात् प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश के संबंध में बंध अथवा उदय अथवा संक्रम एक साथ ही प्रवर्तित होते हैं, यानि कि इन चारों का साथ ही बंध अथवा उदय अथवा संक्रम होता है । किन्तु वाणी के क्रमपूर्वक प्रवर्तित होने से एक साथ इन चारों के स्वरूप का निर्देश नहीं किया जा सकता है। इसलिये जब जिसके स्वरूप को कहने की इच्छा होती है, तब उसको बुद्धि से पृथक् करके सविस्तार उसका कथन किया जाता है। जिससे यह सब कुछ संगत हो जाता है तथा स्थिति, रस और प्रदेश का जो समूह वह प्रकृति और उन तीनों का जो समुदाय वह प्रकृतिबंध (तस्समुदाओ पगईबन्धो) यह पूर्व में कहा जा चुका है, अतः उनका जो संक्रम वह प्रकृति
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