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________________ बंधनकरण-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १३ पुद्गल स्कन्धों को ग्रहण करते हैं। इस प्रकार लोक में विद्यमान पहले औदारिकादि शरीर योग्य वर्गणाओं में से योग का अनुसरण करके पहले पुद्गल स्कन्धों को ग्रहण करते हैं, उसके पश्चात् उन्हें औदारिकादि शरीर रूप में परिणमित करते हैं। इसके साथ ही भाषा, श्वासोच्छ्वास और मनोयोग्य वर्गणाओं में से पुद्गल स्कन्धों को ग्रहण करते हैं फिर उन्हें भाषा, श्वासोच्छ्वास और मन रूप में परिणमित करते हैं तथा परिणमित करके उन पुद्गलों के विसर्ग छोड़ने में कारणभूत सामर्थ्य की प्राप्ति के लिये उन्हीं पुद्गलों का अवलंबन लेते हैं-सहायता लेते हैं। तत्पश्चात् उन पुद्गलों के अवलंबन से उत्पन्न वीर्य-सामर्थ्य विशेष के द्वारा उनको छोड़ देते हैं, ऐसा किये बिना उनको छोड़ देना सम्भव नहीं है । जैसे बिल्ली ऊंची छलांग लगाने के लिये पहले अपने शरीर को संकुचित करने के माध्यम से अवलंबन लेती है और उसके बाद उस संकोच के द्वारा प्राप्त बल से ऊंची छलांग लगा सकती है। इसके सिवाय अन्यथा कूद नहीं सकती है—छलांग नहीं लगा सकती है। अथवा किसी व्यक्ति को लम्बा कूदना हो तब वह पहले कुछ पीछे हटता है और उसके पश्चात् ही छलांग लगा सकता है। ऐसा किये बिना यथोचित छलांग नहीं लगा सकता है। इसी प्रकार भाषादि वर्गणाओं को छोड़ने के लिये उन्हीं पुद्गलों का अवलंबन लेते हैं और फिर उनके अवलंबन से उत्पन्न हुए वीर्य के द्वारा उन पुद्गलों को छोड़ सकते हैं। इसका कारण यह है कि संसारी जीवों का वीर्य पुद्गलों के निमित्त से उत्पन्न होता है, प्रवर्तित होता है। उपर्युक्त प्रसंग में यह जानना चाहिये कि संसारी जीव का योग द्वारा औदारिकादि शरीरों के योग्य पुद्गलों के ग्रहण और परिणमन का जो संकेत किया है, उसमें तो तत्तत् बंधननामकर्म कारण है जिससे संसारी जीव उन औदारिक आदि शरीरों के पुद्गलों को अपने साथ संयुक्त कर लेता है, किन्तु भाषा, श्वासोच्छ्वास और मनोवर्गणाओं
SR No.001903
Book TitlePanchsangraha Part 06
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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