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पंचसंग्रह : ६
संख्या सूक्ष्म क्षेत्र पल्योपम के असंख्यातवें भागगत प्रदेश राशि प्रमाण तथा सर्वत्र पर्याप्त का अर्थ करणपर्याप्त जानना चाहिये । 1
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इस प्रकार से योग संबंधी समस्त प्ररूपणाओं का विस्तार से वर्णन करने के अनन्तर अब संसारी जीवों के द्वारा इस योगशक्ति से होने वाले कार्य का वर्णन करते हैं ।
जीवों द्वारा योग से होने वाला कार्य
जोगगुरूवं जीवा परिणामंतोह गिव्हिडं दलियं । भासाणुप्पाणमणोचियं च अवलंब दव्वं ॥ १३॥
शब्दार्थ –जोगणुरूवं – योग के अनुरूप, जीवा - जीव, परिणामंतीहपरिणमित करते हैं, गिहिउं – ग्रहण करके, दलियं - दलिक को, भासाणुपाणमणोचियं - भाषा, श्वासोच्छ्वास, मन, च— और, अवलंबए— अवलंबन लेते हैं, दव्वं - (पुद्गल ) द्रव्य का ।
माथार्थ - योग के अनुरूप जीव दलिकों औदारिकादि पुद्गलों को ग्रहण करके औदारिक आदि शरीर रूप में परिणमित करते हैं और भाषा, श्वासोच्छ्वास एवं मन के योग्य पुद्गलों का अवलंबन लेते हैं ।
विशेषार्थ - संसारी जीवों में विद्यमान जिस योगशक्ति का पूर्व में विस्तार से वर्णन किया गया है, उस योगशक्ति के द्वारा जीव द्वारा होने वाले कार्य का इस गाथा में निर्देश किया है
जोगणुरूवं जीवा............गिहिउं दलियं ।'
अर्थात् इस संसार में जीव योग के अनुरूप यानि जघन्य योग में वर्तमान जीव अल्प पुद्गल स्कन्धों को ग्रहण करते हैं, मध्यम योग में वर्तमान मध्यम और उत्कृष्ट योग में वर्तमान उत्कृष्ट - अधिक
१ जीव-भेदों विषयक योगस्थान के अल्प- बहुत्व का दर्शक प्रारूप परिशिष्ट देखिए ।