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________________ ३८ पंचसंग्रह : ६ का ग्रहण और उस-उस रूप में परिणमित कर उन्हें छोड़ देने का कारण यह है कि जीव के साथ संबंध होने में हेतुभूत उनके नाम वाला कोई बंधननामकर्म नहीं है। जिससे भाषा, श्वासोच्छ्वास और मन के योग्य वर्गणाओं का पूर्व के समय में ग्रहण और उसके बाद के समय में छोड़ना, इस प्रकार से ग्रहण और छोड़ने का क्रम चलता रहता है। _____ संसारी जीवों द्वारा योग से होने वाला कार्य जब योगानुरूप पुद्गल स्कन्धों का ग्रहण, परिणमन करना और अवलंबन लेना है तब यह जिज्ञासा होती है कि कौन से पुद्गल तो ग्रहणयोग्य हैं और कौन से पुद्गल ग्रहणयोग्य नहीं हैं। इसलिये अब ग्रहणयोग्य और अग्रहणयोग्य पौद्गलिक वर्गणाओं का निरूपण करते हैं । पौद्गलिक वर्गणाओं का निरूपण एगपएसाइ अणंतजाओ होऊण होति उरलस्स । अज्जोगंतरियाओ उ वग्गणाओ अणंताओ ॥१४॥ ओरालविउच्वाहार तेयभासाणुपाणमणकम्मे । अह दव्व वग्गणाणं कमो विवज्जासओ खित्ते ॥१५॥ शब्दार्थ-एगपएसाई-एक प्रदेश से लेकर, अणंतजाओ-अनन्त परमाणुओं से निष्पन्न, होऊण-हुई, होति होती हैं, उरलस्स-औदारिक शरीरयोग्य, अज्जोगंतरियाओ—अग्रहणयोग्य से अंतरित, उ--और, वग्गणाओ-वर्गणायें, अणंताओ-अनन्त । ओराल-औदारिक, विउव्वाहार-वैक्रिय, आहारक, तेय-तैजस्, भासाणुपाणं-भाषा, श्वासोच्छ्वास, मण-मन, कम्मे--कार्मण, अह-अब दम्व-द्रव्य की अपेक्षा, वग्गणाणं-वर्गणाओं का, कमो-क्रम, विवज्जासओ-विपरीत, खित्ते-क्षेत्रापेक्षा । .. गाथार्थ-एक प्रदेश से लेकर अनन्त परमाणुओं से निष्पन्न हुई वर्गणाओं का अतिक्रमण करके औदारिक शरीर ग्रहण
SR No.001903
Book TitlePanchsangraha Part 06
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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