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बंधनकरण - प्ररूपणा अधिकार : गाथा २, ३
कैलिक वीर्य अयोगिकेवली गुणस्थानवर्ती जीवों एवं सिद्ध भगवंतों होता है ।
उक्त समग्र कथन का सारांश यह है
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ज्ञानादि गुणों की तरह वीर्य भी जीव का स्वभाव है । अतएव यह सभी जीवों - संसारी, सिद्ध, सकर्मा, अकर्मा जीवों में समान रूप से पाया जाता है । ऐसा कोई भी जीव नहीं है जो वीर्य-शक्ति से विहीन हो । जीव दो प्रकार के हैं- सलेश्य और अलेश्य । लेश्यारहित जीवों में प्राप्त वीर्यशक्ति समस्त कर्मावरण के क्षय हो जाने से क्षायिक है और निःशेष रूप से कर्मक्षय जन्य होने के कारण कर्म बंध का कारण नहीं है । इसीलिए अलेश्य जीवों का न कोई भेद है और न उनकी वीर्यशक्ति में तरतमता रूप अंतर है, किन्तु सलेश्य जीवों की वीर्यशक्ति कर्मबंध में कारण है । अतएव कार्यभेद अथवा स्वामिभेद से सलेश्य वीर्य के दो भेद होते हैं । कार्यभेद की अपेक्षा भेद वाला वीर्य एक जीव को एक समय में अनेक प्रकार का होता है और स्वामिभेद की अपेक्षा भेद वाला वीर्य एक जीव को एक समय में एक प्रकार का और अनेक जीवों की अपेक्षा अनेक प्रकार का है ।
सलेश्य जीव दो प्रकार के हैं - छद्मस्थ और अछद्मस्थ । अतः वीर्य - उत्पत्ति के दो रूप हैं - वीर्यान्तराय कर्म के देशक्षयरूप और सर्वक्षयरूप । देशक्षयजन्य वीर्य को क्षायोपशमिक और सर्वक्षयज वीर्य को क्षायिक कहते हैं, जो केवलियों में पाया जाता है । जिससे सलेश्य वीर्य के भी दो भेद हैं-छामस्थिक सलेश्य वीर्य और कैलिक सलेश्य वीर्य ।
केवली जीवों के अकषायी होने से उनका कोई भेद नहीं है उनमें सिर्फ कषायरहित कायपरिस्पन्दनरूप वीर्यशक्ति है ।
छामस्थिक जीव दो प्रकार के हैं - अकषायी सलेश्य और अकषायी अलेश्य जीव ।
कषायों का दसवें सूक्ष्मसंप रायगुणस्थान में विच्छेद हो जाता है ।